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Vinod Atwal
Dehradun, December 27
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With the end of Christmas chaos and preparation to welcome new year, city witnessed a mega political event i.e, Parivartan Rally lead by Prime Minister Narendra Modi on Tuesday.
Addressing massive crowd at parade ground Modi emphasised over the consequences of demonitisation. He termed note ban as a ' master stroke' which at a single go brought an end to lot of social problems plunging the nation.
" In a single stroke terrorism, drug mafia, fake currency and human trafficking were hooked" he said.
He also referred it like 'clealiness drive' which will also tend to punish every corrupt.
PM said that he was completing his duty of 'Chowkidar' in order to make nation free from black money.
Although indirectly, but he targeted the opposition regarding the protest over demonitisation saying that there are some people who doesn't want him to act strictly on black money, meanwhile urging public to cooperate in fighting against corruption.
BJP's Parivartan Rally is an outreach campaign to spread their message on the grounds of forthcoming elections in poll-bound Uttarakhand.
Adding to this he claimed Uttarakhand as a biggest source of tourism. Pondering on the corruption in Govt. Jobs prevailing in state, he promised to provide employments on the basis of merits rather than the connection with eco-political powers
Alongwith paying tribute to victims of 2013 flash floods Prime Minister inaugurated the Char-Dham highway project connecting the major pilgrimage sites in Uttarakhand worth of 12,000 crore and 900 kilometres long.
Wednesday, 28 December 2016
Demonitization made many people uncomfortable: Modi
Wednesday, 21 December 2016
तू देना आवाज़
" चाहूँगा मैं मिलना तुम से
इस जहाँ में, उस फलक पर
हो सकेगा तो
उस फलक के पार भी, पर
आवाज़ दे देना
चाहूँगा मैं छूना तुम्हें
सख्त हथेलियों औ' सुंदर माथे पर
हो सका तो
तुम्हारे बिखरे बालों को भी, पर
आवाज़ दे देना
चलना चाहूँगा साथ तुम्हारे
इक सड़क से अनजान डगर पर
हो सका तो
इस जिंदगी के किस्से से आगे भी, पर
आवाज़ दे देना
मैं हूँ निपट अकेला जिंदगी में,
जी रहा हूँ, मर रहा हूँ
रोज तुम्हारी याद लेकर
हो सके तो, आवाज़ देना
खो गया हूँ, तुम में
तुम खो जाना कभी मुझ में भी
तो जानोगे किस कदर खामोश हूँ मैं,
एक तुम्हारी याद के सहारे
लफ्ज़ बेमानी से लगते हैं अब
हो सका तो
देख लेना एक बार इस जिंदगी में
हो सका तो
आवाज़ दे देना
जाने कैसे मैं तुम्हारा हो गया...?
तुम बस एक बार मुझे सोच लेना
हो सका तो
आवाज़ दे देना... "
--(विनोद)
**Valley of Flowers
Friday, 11 November 2016
निकल पड़ेंगे हम
जहाँ से फूटती हो वो रोशनी
जो हर स्याह रातों की
मायूसी, खामोशी
और
और आँसू हर ले
निकल पड़ेंगे हम
कुछेक मुसाफिर उस सम्त
किसी भोर,
अँधेरों को धता बताकर
आँखों में
रोशनी की तलाश के लिए
उम्मीद की लौ लिये
किसी ओर
भूल पाएँगे क्या..?
उन सब बीते दिनों को
जिनकी खुशनसीबी ने
रातों को जगाया
बाद में उन्हीं रातों
के सबब ने रुलाया...!
अपने यादों के बक्से
का वो भी तो हिस्सा है
सो बेहतर है उसे याद ही करें
और,
और निकल पड़ेंगे हम
कुछेक मुसाफिर
उन रस्तों पर
जहाँ वो रोशनी
बनती हो, मिलती हो
तृप्त सा कुछ कर दे....."
--- © विनोद
(नवंबर 12, 2016)
याद आता है घर
भूल जाते हैं गीला तौलिया
बिस्तर, कुर्सी या कहीं भी अंदर
याद आता है घर
जिनमें बोए थे कुछ हो जाने के सपने
वही सपने जो अब हैं तितर बितर
उन सपनों के मानिंद अब
याद आता है घर
किराए के कमरों में
चीखती हुई खामोशी
सँवारने की कोशिश में जब
नहीं महज एक कमरा हमसे पाता सँवर
बहुत याद आता है घर
गाय को चारा डालना, पानी पिलाना
वो मोहल्ले की सुनसान दोपहरों में
छिपकर कहानियाँ पढना, गीत गुनगुनाना
न जाने कहाँ सब गया बिसर..?
बहुत याद आता है घर.....
मिलना तुम
बेफुर्सत, बिन तैयारी
यूँ ही कहीँ से दौड़ आना तुम
मैं भी हड़बड़ाता लड़खड़ाता चला आऊँगा
तुम्हें देखने, तुम में खोने
हो सके तो, ले आना
बरसात तुम
और साथ में इक
भारी बस्ता
बस्ता बचाने के बहाने सही
सामान रखते,
मेरी ऊंगलियों से अपनी ऊंगलियां
टकराना तुम
मैं शर्मा जाऊँ तो
मुझे देख फिर
हँसना तुम
बेफुर्सत, बिन तैयारी
यूँ ही कहीं से दौड़ आना तुम
चलना वहीं कहीं, किसी पहाड़
नदी या वीरानी के ठिकानों में
बैठ जाना वहीं कहीं, किसी पत्थर
लकड़ी या यादों के सिरहानों में
बिखरी पड़ी किसी पेड़ की छाल
उठा लाऊँगा मैं, और..
और उसमें हम दोनों का
नाम लिख देना तुम.........!
-- विनोद
copyright reserved
में हूँ क्या
कोरे वरक सा
मुझ में लिख देना
तू कुछ, तुझ जैसा
मैं हूँ एक
बिखरती बूँद सा
मुझ को बना लेना
अपने प्रेम के उस विशाल
पत्ते का हिस्सा...... "
-- विनोद
copyright reserved
मुझे अच्हे लगते हैं
भीड़ भरे चौराहे
चौराहों पर इंतजार करते लोग
जो किसी की राह में बेसब्री से
बार बार फोन में समय को तकती हैं
जो किसी के होठों और बाहों पर फूट पड़ती हैं
किसी दूर से आए हुए अपने को देखकर
डूब जाने को दिल करता है
जो किसी को भी पूरा कर देते हैं
चलती हुई बसें
खिड़की में बैठे लोग
जो बेमंजिल चलते रहते हैं
बिना किसी ठौर, किसी ठिकाने
की परवाह किए, बस चलते हैं
की बेचैनी रहती है औ
वहाँ पहुँचकर फिर कहीं और की
वो कंडक्टर और टायर से
ठीक आगे की सीटें
जहाँ पर बेसाख्ता हवा आती है
जी जाने का मन करता है
सब दुख भूलकर, बीता कल
किसी की पीछे को उड़ती हुई
पान की पीकों में छोड़कर....
सब अच्छा लगता है
ठहरना नहीं लगता.....
Thursday, 27 October 2016
अक्स ढूँढता कोई
तुझसे उधार ली नज़रों से
उस अंजान की नजर पर
नदी किनारे बैठा वो
किसी का अक्स ढूँढता कोई...
उन दो बड़े छोटे पत्थरों को
छूता हुआ, जाने क्या
महसूस किया उसने
किसी के रूठने का गम
दूर होने का डर जैसा कुछ
छलक पड़ी आँखें यकायक
किसी का अक्स ढूँढता कोई
बीते लम्हों के हवाले से
निकाल कर सारी यादें
सहलाता रहा दिन ढलने तक
पानी, पत्थर, हवा और
और
किसी अंजान चुप्पी को
नागवार गुजरा था दर्द उसका
न जाने इतना डरा क्यों था
किसी का अक्स ढूँढता कोई.......... "
© Vinod
जिंदगी तो जीनी है
रूठ जाए कोई भले, या मान जाए
छोड़ जाए हाथ, ले जाए साथ
कुछ भी हो
जिंदगी तो जीनी है
यादें बहुत झीनी हैं
मास्टर की मार, बेवफा का प्यार
पकाऊ कविता का सार, शरीर का क्षार
जो भी गति हो
जैसी भी हवा, रूख तो करनी ही है
जिंदगी तो जीनी है
गरल की बूँदें, कुछ दिन ही सही
सबने तो पीनी है
बहती धार है जिंदगी शायद
पानी की हो या दरांती की
चलना जब धार पर ही है
तो फिकर क्यों करनी है
गरल की बूँदें, कुछ दिन ही सही
हम सबने पीनी है
जिंदगी है तो जीनी है
मरकर जीने की कल्पना
कैसे करते हो......?
© vinod
Sunday, 23 October 2016
दो आरज़ू में काट गए , दो इंतज़ार में : ज़फर जयंती
शायर होना या हो जाना , ना जाने क्या होता है, शायद शायर हो जाया जाता है. तो 24 अक्टूबर एक ऐसे शायर का जन्मदिन है जो न की शायर था बल्कि हिंदुस्तान में राज करने वाली सबसे बड़ी सल्तनत का आखिरी बादशाह. हाँ तो बात बहादुर शाह ज़फर की ही हो रही है. ज़फर के बारे में हमेशा ऐसा व्याख्यान पढ़ने को मिला था( कोर्स की किताबें हों या कुछ भी जिसमें उनके शाशन को बताया हो) जिस से ज़फर की एक कमज़ोर सी छवि बनती. पांच साल पहले जब लोग फेसबुक पर हाथ पाँव मार ही रहे थे तो पहली बार किसी फ़ेसबुकिया शायरी के ग्रुप में ये पढ़ा
"उम्र ऐ दराज़ मांग कर लाये थे चार दिन दो आरज़ू में काट गए , दो इंतज़ार में ...."
और नाम डाला था फ़राज़ का तो ज़फर नहीं पकडे गए और आज भी दराज़ और फ़राज़ के समान्तर ध्वनि उच्चारण की ही वजह है की ज़फर नही आते दिमाग में. पर जब पुख्ता पता चला की ये ज़फर कही है तो ज़फ़र को और पढ़ा, जो ज़फर की कमज़ोर सी छवि बनी थी वो आहिस्ता आहिस्ता ख़तम होती रही और ज़फर एक बाहत ज़बरदस्त शायर लगने लगे. ज़फर का एक और किस्सा मशहूर तो नहीं पर बताने लायक ज़रूर है, एक poetic concert में सुना था और ज़फर से थोड़ा और जुड़ाव हुआ. वैसे तो हम लोग किसी भी शायर को पढ़ें तो अपना अक्स खोज लेते हैं और वो करीब आ जाता है. तो किस्सा यूँ है की ज़फर बाकी मुग़ल शासकों की तरह गद्दी के खातिर पैंतरे नहीं चल पाते थे, क्या कीजे शायर था जनाब . तो जब समूचे भारत में 1857 की क्रान्ति का बिगुल बजा तो ज़फर भी पीछे नहीं हटे और 12 मई 1857 को पहली बार सभा की और अपना पूरा समर्थन क्रांतिकारियों को दिया , कुछ ही दिनों में उनके लोगों ने 52 यूरोपीय लुटेरों को मार गिराया. जैसा कहा जाता है कि धर्म के नाम पर ज़फर बहुत ही उदारवादी थे और कोई भी किसी भी तरह के धार्मिक, जातीय भेदभाव को तवज्जो नहीं देते, यही वजह थी कि वो भी क्रांतिकारियों को समर्थन देकर उनकी सहभागिता बढ़ने लगी. फलस्वरूप 7 अक्टूबर १८५८ कि सुबह 4 बजे , अपनी बेगमों और बचे हुए दो बेटों के साथ रंगून ले जाए जाने लगे . अब जोकिस्सा मैंने सुना वो यहाँ पर रोचक है , जब उनको दिल्ली से रंगून ले जाए जा रहा था तो जिस सार्जेंट को उनको पहुचने का दायित्व सौंपा गया था, सार्जेंट ने तंज़ मार कर बोला , चूंकि वो अँगरेज़ सार्जेंट यहीं पैदा हुआ था बड़ा हुआ था तो शायरी का बहुत शौक रखता था बोला " बादशाह हमने एक शेर कहा , सुनोगे " ज़फर ने हाँ ही कहा होगा तो उसने कहा :--" दमदमे* में दम नहीं अब खैर मांगो जान की
ऐ ज़फर ठंडी हुई शमशीर हिंदुस्तान की ....."
गाज़ियाबाद के पास हिंडन नदी बहती है वहां पहुँचते पहुँचते ज़फर बोले " बेटा तुमने हमें शेर कहा हमने भी एक शेर कहा , सुनाएं ..?" सार्जेंट की हाँ भरते ही ज़फर बोले
" ग़ाज़ियों में बू रहेगी जब तलाक ईमान की
तख़्त ऐ लन्दन तक चलेगी तेग हिंदुस्तान की "
अब ज़फर की एक ग़ज़ल हो जाए जो बहुत रूमानी है , कुछ महीनो ही पहले इसकी ये दो फोटो में लगी हुई लाइनें कहीं पढ़ी थी और सट सी गई.
" बात करनी मुझे मुश्किल कभी ऐसी तो न थी
जैसी अब है तिरी महफ़िल कभी ऐसी तो न थी
ले गया छीन के कौन आज तिरा सब्र-ओ-क़रार
बे-करारी तुझे ऐ दिल कभी ऐसी तो न थी
उस की आँखों ने खुद जाने किया क्या जादू
की तबियत मिरी माइल कभी ऐसी तो न थी
अक्स-ए-रुख़सार ने किस के है तुझे चमकाया
तब तुझ में मा-ऐ-कामिल कभी ऐसी तो न थी
अब की जो रह-ऐ-मोहब्बत में उठाई तकलीफ
सख्त होती हमें मंज़िल कभी ऐसी तो न थी
प् ऐ कुबान कोई ज़िन्दान में न्य है मजनू
आती आवाज़-ऐ-सालसिल कभी ऐसी तो न थी
निगाह ऐ यार को अब क्यों है तगाफुल ऐ दिल
वो तिरे हाल से गाफिल कभी ऐसी तो न थी
चश्म-ऐ-कातिल मिरी दुश्मन थी हमेशा लेकिन
जैसी अब हो गई कातिल कभी ऐसी तो न थी
क्या सबाब तू जो बिगड़ता है ज़फर से हर बार
खूँ तिरी हूर शामिल कभी ऐसी तो न थी ...."
अब वो जिसमें हमेशा ही बहुत लोगों को भ्रम रहा की ये फ़राज़ की है , कि ग़ालिब की , या कि ज़फर की.
" लगता नहीं है जी मेरा उजड़े दयार में
किसकी बनी है आलम-ए-नापायेदार में
बुलबुल को पासबाँ से न सैयाद से गिला
क़िस्मत में क़ैद लिखी थी फ़स्ल-ए-बहार में
कह दो इन हसरतों से कहीं और जा बसें
इतनी जगह कहाँ है दिल-ए-दाग़दार में
इक शाख़-ए-गुल पे बैठ के बुलबुल है शादमाँ
काँटे बिछा दिये हैं दिल-ए-लालाज़ार में
उम्र-ए-दराज़ माँगके लाए थे चार दिन
दो आरज़ू में कट गए, दो इन्तज़ार में
दिन ज़िन्दगी के ख़त्म हुए शाम हो गई
फैला के पाँव सोएँगे कुंज-ए-मज़ार में
कितना है बदनसीब “ज़फ़र″ दफ़्न के लिए
दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में...."
* दमदमा वो जगह होती है जहाँ शस्त्र, गोला बारूद, रखे जाते थे
Wednesday, 21 September 2016
दुष्यंत कुमार
" मैं बेपनाह अंधेरों को सुबह कैसे कहूँ
मैं इन अंधे नजारों का तमाशबीन नहीं.... "
Tuesday, 6 September 2016
मैं शिक्षक दिवस से क्या समझता हूँ..!
कुछ दिनों पहले चाणक्य और चंद्रगुप्त के समय के बहुत से प्रसंग पढे तो जो आज प्रासंगिक हो सकता है वो बताता हूँ। तो कुछ यूँ हुआ कि जब नंद वंश के राजा घनानंद द्वारा चाणक्य अपमानित हुए तो उन्होंने घनानंद के किसी भी रहमो करम को चुनौती देते हुए कहा " मुझे चिंता या भीख की आवश्यकता नहीं घनानंद, मैं शिक्षक हूँ। यदि मेरी शिक्षा में सामर्थ्य है तो अपना पोषण करने वाले सम्राटों का निर्माण मैं स्वयं कर लूँगा...."
---> यह आज इसलिए प्रासंगिक है क्योंकि आज शिक्षक दिवस है ही, बहुत ज्ञान पेला जा सकता है। मन नहीं है पेलने का, ज्ञान।
पर इतना जरूर है:--
" A great teacher is not simply one who imparts knowledge to his students, but one who awakens their interests in it & makes them eager to pursue it for themselves. He's a spark plug not a fuel pipe. The reason college exists is to bring students into contact with contagious personalities, for otherwise they might as well be correspondance schools....."
ये बहुचर्चित और मेरी जाती पसंदीदा George Benard Shaw ने कहा था....!!
अब जरा फोटो देखो, बहुत गजब कू पंक्तियाँ हैं उसमें।
Happy Teachers Day कहना तो भूल ही गया। तो फिर Happy Teachers Day
© Vnod
05 September 2015
Monday, 5 September 2016
ग़म ए रोज़गार में कट गई हैं ज़िन्दगी ; चलो फैज़ ,कर लें ज़रा तुमको याद
"तेरे माथे का ये आँचल बहुत कमाल है
जो तू इसका परचम बना लेती तो अच्छा था ..."
फैज़ की बात करते हैं पर मजाज़ के ये चन्द और पढ़ लो ... क्या करें जनाब मजाज़ की मोहब्बत में गिरफ्तार हूँ ..
" ये तेरा जर्द रुख, ये खुश्क लब, ये वहम, ये वहशत
तू अपने सर से ये बादल हटा लेती तो अच्छा था...."
"तेरे माथेका टीका मर्द की किस्मत का तारा है
अगर तू साजे बेदारी उठा लेती तो अच्छा था.."
एक शेर और सही अगर इतना ही हो गया हैं तो , ये वो शेर हैं जो बहुत काम सब्दों में इतना कह जाता हैं की पूछो मत ;-
"बहुत मुश्किल है दुनिया का सँवरना
तिरी जुल्फों का पेंचों-खम नहीं है..! "
अब बात करते हैं फैज़ की जहन से चले थे अंजाम तक क्योंकि किसी ने सही ही कहा हैं की
हाँ तो फैज़ पर आ ही जाओ , हैदर पिक्चर तो देखि ही होगी जब उसमे हिलाल मीर(नरेंद्र झा) रूह्दा(अपना इररफ़ान) के साथ जेल में साद रहा होता हैं तो वो बल्ब की चमकती रौशनी में एक दो गीत गाता हकै , कुल सीने तीन मिनट का हैं और फैज़ की दो प्यारी ग़ज़लों को बूझ जाता हैं ... गुलों में रंग भरे तो हैं ही अछि साथ ही इस नज़्म में जो भी ढूंढ सको , जिसको भी dedicate कर सको वो करो. .. मुझे तो जान माफिक पसन्द हैं ये नज़्म
हम देखेंगे
लाज़िम है कि हम भी देखेंगे
वो दिन कि जिसका वादा है
जो लोह-ए-अज़ल[1] में लिखा है
जब ज़ुल्म-ओ-सितम के कोह-ए-गरां [2]
रुई की तरह उड़ जाएँगे
हम महक़ूमों के पाँव तले
ये धरती धड़-धड़ धड़केगी
और अहल-ए-हक़म के सर ऊपर
जब बिजली कड़-कड़ कड़केगी
जब अर्ज-ए-ख़ुदा के काबे से
सब बुत उठवाए जाएँगे
हम अहल-ए-सफ़ा, मरदूद-ए-हरम [3]
मसनद पे बिठाए जाएँगे
सब ताज उछाले जाएँगे
सब तख़्त गिराए जाएँगे
बस नाम रहेगा अल्लाह का
जो ग़ायब भी है हाज़िर भी
जो मंज़र भी है नाज़िर[4] भी
उट्ठेगा अन-अल-हक़ का नारा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो
और राज़ करेगी खुल्क-ए-ख़ुदा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो
एक नज़्म , सबकी नज़्र(मेरी भी)
चिंगारी को शोला बनने दो
मान लिया तुम हो बहुत जहीन
इस भरम को भी भीतर पनपने दो
छूटे न जुस्तजू वजूद तलाशने की
भटक रहे हो इस कवायद में तो भटकने दो
गम जो दूर न कर पाओ तो यूँ करो
पास में रखकर ही उन्हें , खुशियाँ पलने दो
कयामत की यहाँ फिक्र किसको है
जो हो रहा है, बस होने दो...........!
--- विनोद ..
04 September 2016
8;00 pm
जहालत की हद् :" एेसी बेकार औरतें को तो मर जाना चाहिए....
मजाक होता या नाना पाटेकर स्टाइल में मिमिक्री होती तो मजाक ही सही समझ कर चुप हो लेते पर उसने कहकर किताब फेंक दी और बोला "क्या बकवास पढते रहते हो तुम लोग" हम लोगों ने add कर के बताया कि " भाई पता है तुझे वो लोग एक घर में रहकर भी अलग अलग कमरों में रहते थे। बोला " तुम्हें बडा पता है, तुम रात को बैडरूम चैक करने गए क्या? " और फिर खामखा की बहस हो गई कि वो नाराज हो गया और हम भी।
बात अमृता की कहानी नहीं है भाई, देख तूने समझना है नहीं पर फिर भी खुदा न खास्ता ये पढ़कर चुपके से scroll करना। बात अमृता की नहीं है न ही इमरोज़ और न साहिर या फिर न प्रीतम की है। बात है स्वच्छंद होकर भी दुनिया के कोनों में दुबके समाज के भौंडे उसूलों को तक देखकर तालमेल बना कर जीना। जहालत की हद यही है कि हमारे लिए हर दूसरी लड़की जो हमें भाव न दे, वो बर्बाद, मर्यादाहीन(दोस्त की जुबान में) चरित्रहीन हो जाती है। ठरक इतनी है कि पुरुष शौचालयों में तक एेसा एेसा लिख आते हैं मत पूछो। तर्क मर गया है, जरा दिमाग नहीं लगाते लड़के ,कि पुरूष शौचालय � में लड़की भला क्यों आएगी वो भी तब जब पूरी दुनिया में एेसे ही कुंठित शौच लेखक घूम रहे हों। मंटो की कहीं पर कही बात याद आ रही है कि " जिस दिन से हम औरत के सीने को सीना मात्र समझकर कुछ और नहीं समझेंगे, तब ये सब कुकर्म और उत्पीड़न बंद हो जाएँगे "। अब इतनी लंबी पोस्ट ठेलने का मकसद सिर्फ इतना है कि block तू करेगा नहीं आखिर गाने में ही दूँगा तुझे, और आगे भी घूमने भी साथ जाना है जंगलों में चार लोग पढ लें और फिर लिख अपने विचार कमेंट में। एेसा है भाई ज्यादा फालतू नहीं बोलते। कम से कम बहस करते समय पंद्रह बीस मिनट तक जो भी तूने बोला याद करना और फिर सोचना। आज याद आ गई, सबक सिखाने की virtual फजीते से। खैर ये फोटो में वो लाईन हैं जो मैंने एक बेहतरीन
![]() |
(अमृता और इमरोज़ की किताब की वो पंक्तियाँ जो उस ब्लॉग में मिली) |
थैंx.....!
धन्यवाद
Thursday, 1 September 2016
भसड़पट्ट छीछैन हैगे हो माराज
ये आजकल के जर्नलिस्ट लोग राजनीति बहुत बतियाते हैं , सब बतियाते हैं ये. राजनीति का कुछ होना नहीं है भला शायद तो क्यों इतना उछालते हैं इन नेताओ को ?? भाव ही मत दो क्या पता एक साल , दो साल , तीन साल में लाइन में आ जाएँ . हुज़ूर क्या करें हम ठहरे देसी , असली मसाला गॉसिप का तो राजनीति में ही है . विज्ञान , बाकी दुनिया के रहस्य में कहाँ है , है नई ? ? सोशल मीडिया से लेकर साड़ी मीडिया देख कर इस लगता है की देश में राजनीति के अलावा कुछ है ही नहीं . वाकई में राजनीति को हमने ही मुह लगा लगा कर बिगाड़ा है , कान खींचे होते तो इस नहीं होता. अब ना तो वो लोग सुधारते हैं और हम तो फिर हम ही हैं , छींटाकसी करते नहीं थकते. आफ्टरआल रियल एन्जॉय तो इसमें ही है ना ?
#भसड़पट्ट छीछैन हैगे हो माराज
आह दुष्यंत , आहा
[ पोस्ट थोड़ी लंबी है, मन हो तो ही पढना ] :-
आज के ही दिन 1933 में नवादा(बिजनौर) के राजपुर में त्यागी जी का जन्म हुआ, सबका ही होता है कोई आश्चर्य नहीं है पर गजलों को हिंदी में कहने की अद्भुत प्रतिभा क्या खूब थी उनमें। जी हाँ दुष्यंत कुमार जी की ही बात हो रही है पिछले साल एक पिक्चर आई थी 'मसान' तो देखी ही होगी। बस बस ठहरो, पिक्चर में एक ठो गाना था "तू किसी रेल सी गुजरती है.."हाँ तो वो दुष्यंत जी की ही लिखी गजल की पंक्ति है।
![]() |
(दुष्यंत और मैं) |
बिना ज्यादा ज्ञान पेले ये बताना बेहद जरूरी है कि एक बार दुष्यंत को पढ लो तो लगेगा की कोई तुम्हारे भीतर से आवाज दे रहा है। दुष्यंत को पढना और समझना बिल्कुल भी clist नहीं है। और दर्शन तो इतना है कि बस्स पूछो मत। तो स्वानंद किरकिरे की आवाज़ में सुनो "तू किसी रेल सी.." और याद करो दुष्यंत को। वैसे वो गीत इस लाइन के बाद का वरूण ग्रोवर साब ने अपने अंदाज से लिखा पर जो भी है जड़ तो दुष्यंत ही हैं। तो सबसे पहले जो मुझे सबसे अच्छी लगती है उनकी रचना वो पढो:-(चुनिंदा कुछ पंक्तियाँ हैं, पूरा पढाने का लोड नहीं ले सकता पर फिर भी मेरे सामने गिडगिडाओगे तो पढा दूँगा, leave it all मजाक था, ये पढो। वैसे आपने पढी ही होगी)
#--> न हो क़मीज़ तो घुटनों से पेट ढक लेंगे
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिये
यहाँ दरख़्तों के साये में धूप लगती है
चलो यहाँ से चले और उम्र भर के लिये
जिएँ तो अपने बग़ीचे में गुलमोहर के तले
मरें तो ग़ैर की गलियों में गुलमोहर के लिये
कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिये
कहाँ चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिये.... <--#
�ये तो थी एक गजल, एेसी ही बहुत बहुत बेहतरीन रचनाएँ लिखी हैं उन्होंने...! एक और पढो फिर (बहुत ज्यादा प्रासंगिक हो रही है आजकल )
#--> कैसे मंजर सामने आने लगे हैं
गाते गाते लोग चिल्लाने लगे हैं
वो सलीबों के करीब आए तो
हमको कायदे-कानून समझाने लगे हैं
एक कब्रिस्तान में घर मिल रहा है
जिसमें तहख़ानों से तहख़ाने लगे हैं
मौलवी से डाँट खाकर अहले मकतब
फिर उसी आयत को दोहराने लगे हैं
![]() |
(जिम कॉर्बेट के पास का पवलगढ़ ) |
आदमी को भूनकर खाने लगे हैं...."
केजरीवाल जी का फेवरेट anthem भी दुष्यंत की कलम से निकला
"हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए.. "
किसको दुष्यंत की पंक्तियों के साथ अपना कोई ढंग का सा चित्र लगाना अच्छा ना लगता हो भला , तो हम भी लगा दिए . अब लगा ही दिए तो पढ़ भी लो यार
" ये सारा जिस्म झुककर बोझ से दुहरा हुआ होगा
मैं सजदे में नहीं था, आपको धोखा हुआ होगा
यहाँ तक आते-आते सूख जाती हैं कई नदियाँ,
मुझे मालूम है पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा.....!
-- दुष्यंत कुमार.. #HappyBirthdayDushyantKumar
दुष्यंत से मेरा परिचय बहुत पहले बचपन में ही हुआ था जब पिताजी के किताबों के ढेर से साए में धूप और सूर्य का स्वागत मिली। वो प्रतियाँ इतनी पुरानी थी कि दो साल पहले फट गई, खैर रट मुझे गया था सब तब तक, फिर भी वहीं नई खरीदी और, कुछ नहीं। दुष्यंत पसंद हैं, वजह नहीं पता। एक और रचना है, वो पूरी पढिएगा(चाहो तो)। मुझे तो पसंद है। बाकी " मत कहो आकाश में कोहरा घना है " तो समय समय पर मिल ही जाती हैं।
#HappyBirthdayDushyantKumar के साथ ही ये आखिरी पढो।
" तुम्हें याद होगा प्रिय
जब तुमने आँख का इशारा किया था
तब
मैंने हवाओं की बागडोर मोड़ी थीं,
ख़ाक में मिलाया था पहाड़ों को,
शीष पर बनाया था एक नया आसमान,
जल के बहावों को मनचाही गति दी थी....,
किंतु--वह प्रताप और पौरुष तुम्हारा था--
मेरा तो नहीं था सिर्फ़!
जैसे बिजली का स्विच दबे
औ’ मशीन चल निकले,
वैसे ही मैं था बस,
मूक...विवश...,
कर्मशील इच्छा के सम्मुख
परिचालक थे जिसके तुम।
।
आज फिर हवाएँ प्रतिकूल चल निकली हैं,
शीष फिर उठाए हैं पहाड़ों ने,
बस्तियों की ओर रुख़ फिरा है बहावों का,
काला हुआ है व्योम,
किंतु मैं करूँ तो क्या?
मन करता है--उठूँ,
दिल बैठ जाता है,
पाँव चलते हैं
गति पास नहीं आती है,
तपती इस धरती पर
लगता है समय बहुत विश्वासघाती है,
हौंसले, मरीज़ों की तरह छटपटाते हैं,
सपने सफलता के
हाथ से कबूतरों की तरह उड़ जाते हैं
क्योंकि मैं अकेला हूँ
और परिचालक वे अँगुलियाँ नहीं हैं पास
जिनसे स्विच दबे
ज्योति फैले या मशीन चले।
आज ये पहाड़!
ये बहाव!
ये हवा!
ये गगन!
मुझको ही नहीं सिर्फ़
सबको चुनौती हैं,
उनको भी जगे हैं जो
सोए हुओं को भी--
और प्रिय तुमको भी
तुम जो अब बहुत दूर
बहुत दूर रहकर सताते हो!
नींद ने मेरी तुम्हें व्योम तक खोजा है
दृष्टि ने किया है अवगाहन कण कण में
कविताएँ मेरी वंदनवार हैं प्रतीक्षा की
अब तुम आ जाओ प्रिय
मेरी प्रतिष्ठा का तुम्हें हवाला है!
परवा नहीं है मुझे ऐसे मुहीमों की
शांत बैठ जाता बस--देखते रहना
फिर मैं अँधेरे पर ताक़त से वार करूँगा,
बहावों के सामने सीना तानूँगा,
आँधी की बागडोर
नामुराद हाथों में सौंपूँगा।
देखते रहना तुम,
मेरे शब्दों ने हार जाना नहीं सीखा
क्योंकि भावना इनकी माँ है,
इन्होंने बकरी का दूध नहीं पिया
ये दिल के उस कोने में जन्में हैं
जहाँ सिवाय दर्द के और कोई नहीं रहा।
कभी इन्हीं शब्दों ने
ज़िन्दा किया था मुझे
कितनी बढ़ी है इनकी शक्ति
अब देखूँगा
कितने मनुष्यों को और जिला सकते हैं?..."
-- धन्यवाद
03-09-2016 10:00am Vnod
Dear September.....

Friday, 12 August 2016
मैं मरना नहीं चाहता
मैं मरना नहीं चाहता, बहुत अजीब है ना? बिल्कुल अजीब है। हो भी क्यों न? भला ये भी कोई बात हुई बताने कि "मैं मरना नहीं चाहता "?
मजा तो दुनिया को वो खत पढने में आता है जिसे Suicide Note कहते हैं, क्योंकि ये बहुत पहले ही विद्वान कह गए हैं कि "The world never stand with living, it always Stoodleigh with corpse" अर्थात ये कि किसी के जिंदा होने पर दुनिया को कोई फर्क नहीं पड़ता पर उसके मरते ही पूरी दुनिया उसकी हो जाती है।
अब आते हैं मुद्दे पर कि मैं क्यों नहीं मरना चाहता..?
मैं नहीं मरना चाहता और साथ ही न किसी को मरा देखना चाहता हूँ। क्योंकि मैं नहीं चाहता कि मेरा जीवन इतनी जल्दी समाप्त हो जाए कि मैं किसी के भी जीवन को बेहतर करने में योगदान न दे पाऊँ, दुनिया में बहुत लाचारी है और लाचारी के मारे लोग बहुत दुखी हैं। मैं चाहता हूँ कि किसी की तो कम से कम लाचारी कम कर जाऊँ।
मैं नहीं मरना चाहता क्योंकि अगर जीते हुए ही दुनिया न देख पाए तो पैदा होने का ही क्या फायदा।
ताज्जुब है जो लोग मर जाते हैं, ताज्जुब है कि शरीर नश्वर है फिर भी लोग पूरा जीवन अपने नीच स्वार्थों में काट देते हैं। अब स्वार्थ कह ही रहा हूँ तो ये भी तो मेरा स्वार्थ है कि "मैं मरना नहीं चाहता " हाँ है,बिल्कुल है। पर इसमें कोई नीचता नहीं है। क्यों?
चलो समझाता हूँ, मैं देखना चाहता हूँ कि कैसे इतने लोग बसे, जानना चाहता हूँ कि क्या था वो इतिहास जिसके कारण हमारा वर्तमान है। नीचता का स्वार्थ इसलिए नहीं है क्योंकि मुझे लोभ भी नहीं है किसी चीज का। दुनिया की नजरों में भले ही मुझ जैसों को पागल/बेवकूफ़ कह दिया जाता हो पर ये तो बता दो कि जीवन भर शुंअर बनकर खुद का उदर भरना, दूसरो से जलना,ईर्ष्या रखना, दान के नाम पर खुद के भय के मारे एक कटोरा शनिवार को दे देना ये कौन से अच्छे लोगों के काम हैं भई? अगर ये अच्छे लोग होते हैं तो हम लोग पागल ही सही। एेसे ही मजा आएगा नि? चलने के लिए भगवान् ने पैर दिए हैं, और दिमाग दिया है तो दिमाग इस्तेमाल कर के चलते रहने में ही भलाई है।
तब तक की जब तक पैर के छाले न फूट पड़ें और फिर आराम कर के चलते रहना। चलते ही जाना
© vinod atwal
Written on - January 14,2015
Review: Rustom में ज़ी न्यूज़ के संपादकों का मिनी रूप भी
पिक्चर का फर्स्ट हाफ चूहा दौड़ में लगा रहता है . दूसरा हाफ अच्छा कह दे रहा हूँ . अब कह रहा हूँ तो मतलब ढंग का लगा तभी . एक अखबार मालिक ने कॉमेडी कर के कॉमेडी की ही धज्जियां कर दी हैं बाकी इंडियन ड्रामा टाइप है मूवी. आप लोगों को ज़रूर अछि लगेगी . मुझे भी लगी अच्छी...?
सबसे अच्छा पार्ट मुझे कोर्ट के अंदर की सुनवाई का लगा. थोड़ा दिमाग लगाओगे तो पता चलेगा की आजकल की उन्मादी भीड़ (जो बस बिना सोचे समझे extreme perception बना लेती हैं, मसाला खबर या मामला मिलने पर) जो कभी भी कसी भी बात पर खुस और कहीं पर भी नाराज़ हो जा रही थी. अखबार या खबर के पैरोकारों की भी अच्छी क्लास लेती है पिक्चर .
हम किसी भी खबर पर कितनी जल्दी विश्वास कर लेते हैं ना. इसका फायदा पिक्चर में अखबार मालिक बहुत उठाता है और वो भीड़ के मूड को बार बार बदलने में कारगर साबित होता है . आजकल भी तो यही ही हो रहा है ना ? हो रहा है ? चलो खुद से पूछ लो देशभक्तो .. पिक्चर में आजकल के एक देशभक्त और सामजसेवी चैनल ज़ी न्यूज़ के एक संपादक सुधीर चौधरी जी से प्रेरित एक मिनी सुधीर चौधरी बच्चा बना है
नीरज पांडेय की पिक्चरों की यही बात(समाज की राग पकड़ने वाली ) मुझे बहुत अच्छी लगती है. उनकी हर एक पिक्चर आम आदमी ( पार्टी वाली नहीं हाँ ) की आम ज़िन्दगी और मानसिकता का पहलु और पल्लू दोनूँ थाम लेती है.
सबसे अच्छे पिक्चर के लास्ट में पंद्रह बीस मिनट लगते हैं जब पता चलता है की विलेन को मारने की वजह रुस्तम की बीवी का short term प्रेम नहीं होता बल्कि कुछ और होता है. वहां पर सस्पेंस खुलता है और हम
( मतलब मैं, आप सब ) ठगे से रह जाते हैं की जो अभी तक चल रहा था ये कुछ और ही था . इसी तरह की एक हॉलीवुड मूवी है बहुत पुरानी, नाम याद नहीं आ रहा, शायद नीरज जी ने वो देखी ,देखी ही होगी. जो भी है आप जा सकते हैं देखने क्योंकि इसमें कलर्स, स्टार प्लस के daily soaps का भी पूरा फ्लेवर है . पवित्र रिश्ता की आई और खिचड़ी के बाबूजी ने पिक्चर को अच्छा होते होते बचा लिया...
Elina D'cruz तो बहुत सुन्दर हैं ही , एक्टिंग भी अच्छी करती हैं(बर्फी बहुत अच्छी थी उनकी). अक्षय कुमार अब भले ही Canadian भी हो गए हों पर हम देशभक्तो के लिए बहुत मसाला मूवी दे रहे हैं . इस लगता है मानो सरकार से ज्यादा काम तो देश के लिए वही कर रहे हैं इसलिए ज्यादा असर नहीं है उनकी प्रजेंस का. एयरलिफ्ट टाइप की लगती है कहीं कहीं तो . मेरा सबसे fvourite scene वो था जब अक्षय अर्जन बाजवा के घर जाते हैं और उस से पूछते हैं की "विक्रम तुम सिंथिया से शादी करोगे ? " मतलब ये है की इंसान को इतना सहज और स्वीकार्य होना चाहिए. हालांकि बाद में पता चलता है की इस कोई scene घटित नहीं हुआ था वो सब अक्षय का तिकड़म था . अब वही सस्पेंस जा ने के लिए सबने मूवी देखनी चाहिए
पिच्चर जब बहुत appealing दिखे तो दो चीज़ें होती हैं या तो बहुत बोरिंग होती है या फिर बहुत interesting कुछ दिनों पहले सुल्तान नाम की पिच्चर भी हवाबाज़ी के चलते, भाई के नाम के चलते बहुत जेबें गरम ठंडी दोनु कर गयी . क्योंकि आप पर है ना की आपको केसी लगी . चलो मैं यहीं बक देता हु की मैं आज रूस्तम देख आया . जिस जिसको खामखा की बकैती काटना या फिर देखना अच्छा लगता हो . उन लोगो के लिए तो ये लाजवाब पिच्चर है .
अब जाकर देख भी आओ यार....
ऋतिक रोशन की मोहेंजो दारो भी देखी उसके लिए भी लिखेंगे कुछ टाइम में तब तक ये पिक्चर देखो.
--> धन्यवाद <---
विनोद
© vinod atwal
12 August 2016, Friday
Thursday, 11 August 2016
मेरी कविता: ज़िन्दगी
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(Photo courtsey due with thanks to owner/photographer) |
ख्वाहिशों के जो हर रोज होते हैं कत्ल
बोझ न उठा पाने के बहानों का नाम है जिंदगी...!
बारिशों में छाता होकर भी
जो हम भीग जाते हैं अक्सर
भीग जाने के उन्हीं धोखों का नाम है जिंदगी....!
पर हर वक्त एक जो डर है, वो डर,
ख्वाबों के मुकम्मल होने का, जो हमेशा डराता है
चीनी मिट्टी के बर्तन से गिरकर ख्वाब बिखर जाने का नाम है जिंदगी..!
-- विनोद
© vinod atwal . (July17, 2016. 11:00pm)