Monday, 5 September 2016

ग़म ए रोज़गार में कट गई हैं ज़िन्दगी ; चलो फैज़ ,कर लें ज़रा तुमको याद

Faiz Ahmad Faiz बहुत अज़ीज़ शायर रहे जिन्होंने  और भी कुछ बहुत शायरों की तरह हमेशा ताउम्र महबूब की ज़ुल्फ़ों के पेचों ख़म में ना उलझकर तात्कालिक सामाजिक परिस्थितियों पर जमकर आवाज उठाई. ऐसी ऐसी नज़्में देकर गए की पूछो मत . मुझे तो उनकी लगभग लगभग हर एक नज़्म , ग़ज़ल में कहीं ना कहीं समाज की , इंसानियत की महक आती ही हैं और वो टीस जो अमूमन शायरों को होती नहीं थी . इसका मतलब ये नहीं हैं की हर किसी की बात कर रहा हूँ. मजाज़ ने भी बहुत जादू दिया  समाज को रुमानियत टाइप क्रान्ति की, कलम के हथियार से . वो मजाज़ ही हैं जो महिलाओं के लिए कह सकते हैं की ;--
"तेरे  माथे  का  ये  आँचल  बहुत  कमाल है
जो तू इसका परचम बना लेती तो अच्छा था ..."
फैज़ की बात करते हैं पर मजाज़ के ये चन्द और पढ़ लो ... क्या करें जनाब मजाज़ की मोहब्बत में गिरफ्तार हूँ ..
" ये तेरा जर्द रुख, ये खुश्क लब, ये वहम, ये वहशत
तू अपने सर से ये बादल हटा लेती तो अच्छा था...."

"तेरे माथेका टीका मर्द की किस्मत का तारा है
अगर तू साजे बेदारी उठा लेती तो अच्छा था.." 

एक शेर और सही अगर इतना ही हो गया हैं तो , ये वो शेर हैं जो बहुत काम सब्दों में इतना कह जाता हैं की पूछो मत ;-
"बहुत मुश्किल है दुनिया का सँवरना 
तिरी जुल्फों का पेंचों-खम नहीं है..! " 

 अब बात करते हैं फैज़ की जहन से चले थे अंजाम तक क्योंकि किसी ने सही ही कहा हैं की


हाँ तो फैज़ पर आ ही जाओ , हैदर पिक्चर तो देखि ही होगी जब उसमे हिलाल मीर(नरेंद्र झा) रूह्दा(अपना इररफ़ान) के साथ जेल में साद रहा होता हैं तो वो बल्ब की चमकती रौशनी में एक दो गीत गाता हकै , कुल सीने तीन मिनट का हैं और फैज़ की दो प्यारी ग़ज़लों को बूझ जाता हैं ... गुलों में रंग भरे तो हैं ही अछि साथ ही इस नज़्म में जो भी ढूंढ सको , जिसको भी dedicate कर सको वो करो.  .. मुझे तो जान माफिक पसन्द हैं ये नज़्म


हम देखेंगे
लाज़िम है कि हम भी देखेंगे
वो दिन कि जिसका वादा है
जो लोह-ए-अज़ल[1] में लिखा है
जब ज़ुल्म-ओ-सितम के कोह-ए-गरां [2]
रुई की तरह उड़ जाएँगे
हम महक़ूमों के पाँव तले
ये धरती धड़-धड़ धड़केगी
और अहल-ए-हक़म के सर ऊपर
जब बिजली कड़-कड़ कड़केगी
जब अर्ज-ए-ख़ुदा के काबे से
सब बुत उठवाए जाएँगे
हम अहल-ए-सफ़ा, मरदूद-ए-हरम [3]
मसनद पे बिठाए जाएँगे
सब ताज उछाले जाएँगे
सब तख़्त गिराए जाएँगे

बस नाम रहेगा अल्लाह का
जो ग़ायब भी है हाज़िर भी
जो मंज़र भी है नाज़िर[4] भी 
उट्ठेगा अन-अल-हक़ का नारा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो
और राज़ करेगी खुल्क-ए-ख़ुदा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो


जो भी लाइन या यूँ कह देता हूँ की जो जो भी लाइन अच्छी लगी वो जवाद अहमद की आवाज में सुन ने के बाद हमेशा हमेशा के लिए आप में फिट हो जाएँगी , बहरहाल ये बोलने का मकसद मेरा अपनी पसंदीदा लाइन बताना था :-
" जब अर्ज-ए-ख़ुदा के काबे से
सब बुत उठवाए जाएँगे
हम अहल-ए-सफ़ा, मरदूद-ए-हरम [3]
मसनद पे बिठाए जाएँगे
सब ताज उछाले जाएँगे
सब तख़्त गिराए जाएँगे.." 


जबर  क्रांतिकारी हैं ना ??

---^ शुक्रिया टाइम खरचने हेतु , चलें फिर ?? चलो बाय

05 September 2016
5;58 pm



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