[ पोस्ट थोड़ी लंबी है, मन हो तो ही पढना ] :-
आज के ही दिन 1933 में नवादा(बिजनौर) के राजपुर में त्यागी जी का जन्म हुआ, सबका ही होता है कोई आश्चर्य नहीं है पर गजलों को हिंदी में कहने की अद्भुत प्रतिभा क्या खूब थी उनमें। जी हाँ दुष्यंत कुमार जी की ही बात हो रही है पिछले साल एक पिक्चर आई थी 'मसान' तो देखी ही होगी। बस बस ठहरो, पिक्चर में एक ठो गाना था "तू किसी रेल सी गुजरती है.."हाँ तो वो दुष्यंत जी की ही लिखी गजल की पंक्ति है।
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(दुष्यंत और मैं) |
बिना ज्यादा ज्ञान पेले ये बताना बेहद जरूरी है कि एक बार दुष्यंत को पढ लो तो लगेगा की कोई तुम्हारे भीतर से आवाज दे रहा है। दुष्यंत को पढना और समझना बिल्कुल भी clist नहीं है। और दर्शन तो इतना है कि बस्स पूछो मत। तो स्वानंद किरकिरे की आवाज़ में सुनो "तू किसी रेल सी.." और याद करो दुष्यंत को। वैसे वो गीत इस लाइन के बाद का वरूण ग्रोवर साब ने अपने अंदाज से लिखा पर जो भी है जड़ तो दुष्यंत ही हैं। तो सबसे पहले जो मुझे सबसे अच्छी लगती है उनकी रचना वो पढो:-(चुनिंदा कुछ पंक्तियाँ हैं, पूरा पढाने का लोड नहीं ले सकता पर फिर भी मेरे सामने गिडगिडाओगे तो पढा दूँगा, leave it all मजाक था, ये पढो। वैसे आपने पढी ही होगी)
#--> न हो क़मीज़ तो घुटनों से पेट ढक लेंगे
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिये
यहाँ दरख़्तों के साये में धूप लगती है
चलो यहाँ से चले और उम्र भर के लिये
जिएँ तो अपने बग़ीचे में गुलमोहर के तले
मरें तो ग़ैर की गलियों में गुलमोहर के लिये
कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिये
कहाँ चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिये.... <--#
�ये तो थी एक गजल, एेसी ही बहुत बहुत बेहतरीन रचनाएँ लिखी हैं उन्होंने...! एक और पढो फिर (बहुत ज्यादा प्रासंगिक हो रही है आजकल )
#--> कैसे मंजर सामने आने लगे हैं
गाते गाते लोग चिल्लाने लगे हैं
वो सलीबों के करीब आए तो
हमको कायदे-कानून समझाने लगे हैं
एक कब्रिस्तान में घर मिल रहा है
जिसमें तहख़ानों से तहख़ाने लगे हैं
मौलवी से डाँट खाकर अहले मकतब
फिर उसी आयत को दोहराने लगे हैं
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(जिम कॉर्बेट के पास का पवलगढ़ ) |
आदमी को भूनकर खाने लगे हैं...."
केजरीवाल जी का फेवरेट anthem भी दुष्यंत की कलम से निकला
"हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए.. "
किसको दुष्यंत की पंक्तियों के साथ अपना कोई ढंग का सा चित्र लगाना अच्छा ना लगता हो भला , तो हम भी लगा दिए . अब लगा ही दिए तो पढ़ भी लो यार
" ये सारा जिस्म झुककर बोझ से दुहरा हुआ होगा
मैं सजदे में नहीं था, आपको धोखा हुआ होगा
यहाँ तक आते-आते सूख जाती हैं कई नदियाँ,
मुझे मालूम है पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा.....!
-- दुष्यंत कुमार.. #HappyBirthdayDushyantKumar
दुष्यंत से मेरा परिचय बहुत पहले बचपन में ही हुआ था जब पिताजी के किताबों के ढेर से साए में धूप और सूर्य का स्वागत मिली। वो प्रतियाँ इतनी पुरानी थी कि दो साल पहले फट गई, खैर रट मुझे गया था सब तब तक, फिर भी वहीं नई खरीदी और, कुछ नहीं। दुष्यंत पसंद हैं, वजह नहीं पता। एक और रचना है, वो पूरी पढिएगा(चाहो तो)। मुझे तो पसंद है। बाकी " मत कहो आकाश में कोहरा घना है " तो समय समय पर मिल ही जाती हैं।
#HappyBirthdayDushyantKumar के साथ ही ये आखिरी पढो।
" तुम्हें याद होगा प्रिय
जब तुमने आँख का इशारा किया था
तब
मैंने हवाओं की बागडोर मोड़ी थीं,
ख़ाक में मिलाया था पहाड़ों को,
शीष पर बनाया था एक नया आसमान,
जल के बहावों को मनचाही गति दी थी....,
किंतु--वह प्रताप और पौरुष तुम्हारा था--
मेरा तो नहीं था सिर्फ़!
जैसे बिजली का स्विच दबे
औ’ मशीन चल निकले,
वैसे ही मैं था बस,
मूक...विवश...,
कर्मशील इच्छा के सम्मुख
परिचालक थे जिसके तुम।
।
आज फिर हवाएँ प्रतिकूल चल निकली हैं,
शीष फिर उठाए हैं पहाड़ों ने,
बस्तियों की ओर रुख़ फिरा है बहावों का,
काला हुआ है व्योम,
किंतु मैं करूँ तो क्या?
मन करता है--उठूँ,
दिल बैठ जाता है,
पाँव चलते हैं
गति पास नहीं आती है,
तपती इस धरती पर
लगता है समय बहुत विश्वासघाती है,
हौंसले, मरीज़ों की तरह छटपटाते हैं,
सपने सफलता के
हाथ से कबूतरों की तरह उड़ जाते हैं
क्योंकि मैं अकेला हूँ
और परिचालक वे अँगुलियाँ नहीं हैं पास
जिनसे स्विच दबे
ज्योति फैले या मशीन चले।
आज ये पहाड़!
ये बहाव!
ये हवा!
ये गगन!
मुझको ही नहीं सिर्फ़
सबको चुनौती हैं,
उनको भी जगे हैं जो
सोए हुओं को भी--
और प्रिय तुमको भी
तुम जो अब बहुत दूर
बहुत दूर रहकर सताते हो!
नींद ने मेरी तुम्हें व्योम तक खोजा है
दृष्टि ने किया है अवगाहन कण कण में
कविताएँ मेरी वंदनवार हैं प्रतीक्षा की
अब तुम आ जाओ प्रिय
मेरी प्रतिष्ठा का तुम्हें हवाला है!
परवा नहीं है मुझे ऐसे मुहीमों की
शांत बैठ जाता बस--देखते रहना
फिर मैं अँधेरे पर ताक़त से वार करूँगा,
बहावों के सामने सीना तानूँगा,
आँधी की बागडोर
नामुराद हाथों में सौंपूँगा।
देखते रहना तुम,
मेरे शब्दों ने हार जाना नहीं सीखा
क्योंकि भावना इनकी माँ है,
इन्होंने बकरी का दूध नहीं पिया
ये दिल के उस कोने में जन्में हैं
जहाँ सिवाय दर्द के और कोई नहीं रहा।
कभी इन्हीं शब्दों ने
ज़िन्दा किया था मुझे
कितनी बढ़ी है इनकी शक्ति
अब देखूँगा
कितने मनुष्यों को और जिला सकते हैं?..."
-- धन्यवाद
03-09-2016 10:00am Vnod
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