Friday, 11 November 2016

याद आता है घर

जब कभी,
भूल जाते हैं गीला तौलिया
बिस्तर, कुर्सी या कहीं भी अंदर
याद आता है घर
याद आते हैं वो दिन
जिनमें बोए थे कुछ हो जाने के सपने
वही सपने जो अब हैं तितर बितर
उन सपनों के मानिंद अब
याद आता है घर
बहुत खलती है
किराए के कमरों में
चीखती हुई खामोशी
सँवारने की कोशिश में जब
नहीं महज एक कमरा हमसे पाता सँवर
बहुत याद आता है घर
वो अनमना सा होकर गेहूँ पिसाना
गाय को चारा डालना, पानी पिलाना
वो मोहल्ले की सुनसान दोपहरों में
छिपकर कहानियाँ पढना, गीत गुनगुनाना
न जाने कहाँ सब गया बिसर..?
इन बेवजह कटते दिनों में भी
बहुत याद आता है घर.....

-- विनोद
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