Friday, 11 November 2016

मुझे अच्हे लगते हैं

मुझे अच्छे लगते हैं
भीड़ भरे चौराहे
चौराहों पर इंतजार करते लोग
अच्छी लगती हैं हर वो आँखें 
जो किसी की राह में बेसब्री से
बार बार फोन में समय को तकती हैं
हर वो मुस्कान और गलबहियां
जो किसी के होठों और बाहों पर फूट पड़ती हैं
किसी दूर से आए हुए अपने को देखकर
उन भावों के ठहराव में
डूब जाने को दिल करता है
जो किसी को भी पूरा कर देते हैं
मुझे अच्छी लगती हैं
चलती हुई बसें
खिड़की में बैठे लोग
अच्छे लगते हैं वो चुनिंदा शख्स
जो बेमंजिल चलते रहते हैं
बिना किसी ठौर, किसी ठिकाने
की परवाह किए, बस चलते हैं
जिनके चेहरों पर कहीं पहुँचने
की बेचैनी रहती है औ
वहाँ पहुँचकर फिर कहीं और की
अच्छी लगती हैं रोडवेज की
वो कंडक्टर और टायर से
ठीक आगे की सीटें
जहाँ पर बेसाख्ता हवा आती है
और फिर से, बार बार
जी जाने का मन करता है
सब दुख भूलकर, बीता कल
किसी की पीछे को उड़ती हुई
पान की पीकों में छोड़कर....
मुसाफिर हैं , क्या करें
सब अच्छा लगता है
ठहरना नहीं लगता.....
--- विनोद

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