Thursday, 27 October 2016

अक्स ढूँढता कोई

" यूँ ही नजर पड़ी पत्थर पर
   तुझसे उधार ली नज़रों से
    उस अंजान की नजर पर

नदी किनारे बैठा वो
किसी का अक्स ढूँढता कोई...

उन दो बड़े छोटे पत्थरों को
छूता हुआ,  जाने क्या
महसूस किया उसने
किसी के रूठने का गम
दूर होने का डर जैसा कुछ
छलक पड़ी आँखें यकायक
किसी का अक्स ढूँढता कोई

बीते लम्हों के हवाले से
निकाल कर सारी यादें
सहलाता रहा दिन ढलने तक
पानी, पत्थर, हवा और
और
किसी अंजान चुप्पी को
नागवार गुजरा था दर्द उसका
न जाने इतना डरा क्यों था
किसी का अक्स ढूँढता कोई.......... "

© Vinod

P.S :- written after watching a guy desperately missing someone and trying to find imprints near bank of divine ganges... 

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