Wednesday, 21 September 2016

दुष्यंत कुमार

" मैं बेपनाह अंधेरों को सुबह कैसे कहूँ
  मैं इन अंधे नजारों का तमाशबीन नहीं.... "

Tuesday, 6 September 2016

मैं शिक्षक दिवस से क्या समझता हूँ..!

कुछ दिनों पहले चाणक्य और चंद्रगुप्त के समय के बहुत से प्रसंग पढे तो जो आज प्रासंगिक हो सकता है वो बताता हूँ।  तो कुछ यूँ हुआ कि जब नंद वंश के राजा घनानंद द्वारा चाणक्य अपमानित हुए तो उन्होंने घनानंद के किसी भी रहमो करम को चुनौती देते हुए कहा " मुझे चिंता या भीख की आवश्यकता नहीं घनानंद, मैं शिक्षक हूँ।  यदि मेरी शिक्षा में सामर्थ्य है तो अपना पोषण करने वाले सम्राटों का निर्माण मैं स्वयं कर लूँगा...."
---> यह आज इसलिए प्रासंगिक है क्योंकि आज शिक्षक दिवस है ही,  बहुत ज्ञान पेला जा सकता है।  मन नहीं है पेलने का, ज्ञान। 

पर इतना जरूर है:--
" A great teacher is not simply one who imparts knowledge to his students, but one who awakens their interests in it & makes them eager to pursue it for themselves.  He's a spark plug not a fuel pipe. The reason college exists is to bring students into contact with contagious personalities,  for otherwise they might as well be correspondance schools....."

ये बहुचर्चित और मेरी जाती पसंदीदा George Benard Shaw ने कहा था....!!

अब जरा फोटो देखो,  बहुत गजब कू पंक्तियाँ हैं उसमें। 
Happy Teachers Day कहना तो भूल ही गया। तो फिर Happy Teachers Day

© Vnod
05 September 2015

Monday, 5 September 2016

ग़म ए रोज़गार में कट गई हैं ज़िन्दगी ; चलो फैज़ ,कर लें ज़रा तुमको याद

Faiz Ahmad Faiz बहुत अज़ीज़ शायर रहे जिन्होंने  और भी कुछ बहुत शायरों की तरह हमेशा ताउम्र महबूब की ज़ुल्फ़ों के पेचों ख़म में ना उलझकर तात्कालिक सामाजिक परिस्थितियों पर जमकर आवाज उठाई. ऐसी ऐसी नज़्में देकर गए की पूछो मत . मुझे तो उनकी लगभग लगभग हर एक नज़्म , ग़ज़ल में कहीं ना कहीं समाज की , इंसानियत की महक आती ही हैं और वो टीस जो अमूमन शायरों को होती नहीं थी . इसका मतलब ये नहीं हैं की हर किसी की बात कर रहा हूँ. मजाज़ ने भी बहुत जादू दिया  समाज को रुमानियत टाइप क्रान्ति की, कलम के हथियार से . वो मजाज़ ही हैं जो महिलाओं के लिए कह सकते हैं की ;--
"तेरे  माथे  का  ये  आँचल  बहुत  कमाल है
जो तू इसका परचम बना लेती तो अच्छा था ..."
फैज़ की बात करते हैं पर मजाज़ के ये चन्द और पढ़ लो ... क्या करें जनाब मजाज़ की मोहब्बत में गिरफ्तार हूँ ..
" ये तेरा जर्द रुख, ये खुश्क लब, ये वहम, ये वहशत
तू अपने सर से ये बादल हटा लेती तो अच्छा था...."

"तेरे माथेका टीका मर्द की किस्मत का तारा है
अगर तू साजे बेदारी उठा लेती तो अच्छा था.." 

एक शेर और सही अगर इतना ही हो गया हैं तो , ये वो शेर हैं जो बहुत काम सब्दों में इतना कह जाता हैं की पूछो मत ;-
"बहुत मुश्किल है दुनिया का सँवरना 
तिरी जुल्फों का पेंचों-खम नहीं है..! " 

 अब बात करते हैं फैज़ की जहन से चले थे अंजाम तक क्योंकि किसी ने सही ही कहा हैं की


हाँ तो फैज़ पर आ ही जाओ , हैदर पिक्चर तो देखि ही होगी जब उसमे हिलाल मीर(नरेंद्र झा) रूह्दा(अपना इररफ़ान) के साथ जेल में साद रहा होता हैं तो वो बल्ब की चमकती रौशनी में एक दो गीत गाता हकै , कुल सीने तीन मिनट का हैं और फैज़ की दो प्यारी ग़ज़लों को बूझ जाता हैं ... गुलों में रंग भरे तो हैं ही अछि साथ ही इस नज़्म में जो भी ढूंढ सको , जिसको भी dedicate कर सको वो करो.  .. मुझे तो जान माफिक पसन्द हैं ये नज़्म


हम देखेंगे
लाज़िम है कि हम भी देखेंगे
वो दिन कि जिसका वादा है
जो लोह-ए-अज़ल[1] में लिखा है
जब ज़ुल्म-ओ-सितम के कोह-ए-गरां [2]
रुई की तरह उड़ जाएँगे
हम महक़ूमों के पाँव तले
ये धरती धड़-धड़ धड़केगी
और अहल-ए-हक़म के सर ऊपर
जब बिजली कड़-कड़ कड़केगी
जब अर्ज-ए-ख़ुदा के काबे से
सब बुत उठवाए जाएँगे
हम अहल-ए-सफ़ा, मरदूद-ए-हरम [3]
मसनद पे बिठाए जाएँगे
सब ताज उछाले जाएँगे
सब तख़्त गिराए जाएँगे

बस नाम रहेगा अल्लाह का
जो ग़ायब भी है हाज़िर भी
जो मंज़र भी है नाज़िर[4] भी 
उट्ठेगा अन-अल-हक़ का नारा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो
और राज़ करेगी खुल्क-ए-ख़ुदा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो


जो भी लाइन या यूँ कह देता हूँ की जो जो भी लाइन अच्छी लगी वो जवाद अहमद की आवाज में सुन ने के बाद हमेशा हमेशा के लिए आप में फिट हो जाएँगी , बहरहाल ये बोलने का मकसद मेरा अपनी पसंदीदा लाइन बताना था :-
" जब अर्ज-ए-ख़ुदा के काबे से
सब बुत उठवाए जाएँगे
हम अहल-ए-सफ़ा, मरदूद-ए-हरम [3]
मसनद पे बिठाए जाएँगे
सब ताज उछाले जाएँगे
सब तख़्त गिराए जाएँगे.." 


जबर  क्रांतिकारी हैं ना ??

---^ शुक्रिया टाइम खरचने हेतु , चलें फिर ?? चलो बाय

05 September 2016
5;58 pm



एक नज़्म , सबकी नज़्र(मेरी भी)

गर  हो  आग, तो जलने दो 
चिंगारी को शोला बनने दो

मान  लिया  तुम  हो  बहुत जहीन
इस भरम को भी भीतर पनपने दो

छूटे  न  जुस्तजू   वजूद  तलाशने  की
भटक रहे हो इस कवायद में तो भटकने दो

गम  जो  दूर  न  कर  पाओ तो यूँ करो 
पास में रखकर ही उन्हें , खुशियाँ पलने दो

कयामत की यहाँ फिक्र किसको है 
जो हो रहा है, बस होने दो...........!

--- विनोद ..

04 September 2016
8;00 pm


जहालत की हद् :" एेसी बेकार औरतें को तो मर जाना चाहिए....

हम इतने जाहिल क्यों हैं...? कुछ दिनों पहले अमृता प्रीतम जी का जन्मदिन था। मैंने पिंजर 6-7 साल पहले और रसीदी टिकट(कुछ कुछ जितना हाल में ही  फ्री में ऑनलाइन मिला) पढी थी। हाँ बार बार लोगों से सुना कि अमृता जी साहित्य में, खासकर पंजाबी साहित्य में बहुत सारा काम किया। चलो ये तो थी एक बात दूसरा ये कि वो अपनी निजी जिंदगी के चलते बहुत मशहूर ओ मारूफ रहीं, साहिर ,अमृता और इमरोज़ का लव ट्रैंगल सबको पता ही है। अब काम की बात ये है कि जिस वजह से ये सब  चेप रहा हूँ। जैसा मेरा मानना है कि कौन कैसे निजी जिंदगी जी रहा है, क्या कर रहा है उसकी मर्जी। हाहाकार क्यों  मचाता है समाज इतना समझ नहीं आता , जैसे की उनका कुछ छीन रहा हो। शादी होना, नहीं होना, होकर टूटना भी किसी का अपना इसु है। अब वाकया इतना है कि उस दिन ही सुबह-सुबह बुकस्टोर से इमरोज़ और अमृता के खतों का संग्रह लेकर आया। बहुत अच्छा था वो। मुझे तो लगा ही जैसा बहुतों को लगा है और शायद हमेशा लगेगा। मेरे कुछ दोस्त हैं, उन में से एक दोस्त है जो थोड़ा एंटी है, होना भी चाहिए "निंदक नियरे राखिए" कबीर ही कह कह गए हैं। हुआ यूँ कि एक दोस्त के घर जाकर हम चार लोग बैठ गए अपना अपना ताम झाम पकड़ कर। हम में से दो लोग(मैं और एक और) वहीं अमृता पर खोज खोजकर पढते रहे, खाना भी नहीं खाने गए तो बचे हुए दो में से वो आया जिसको इस लेख  का क्रेडिट है बोला "क्या लगे हो यार बकवासबाजी करने में" ,हम दाँत चियार दिए। फिर बोला हमें भी बताओ, हमने बड़े प्यार भरे मर्म में डूबी गाथा सुनाई। यहाँ तक बता दिया था कि इमरोज़ ने पूरे घर में अमृता की पेंटिंग्स बनाई और सजाई, वो बोला " एेसी बेकार औरतें को तो मर जाना चाहिए, मर्यादा नहीं पता होती है इनको। अपने पति को छोड़कर क्या भला होगा उसका.." 
मजाक होता या नाना पाटेकर स्टाइल में मिमिक्री होती तो मजाक ही सही समझ कर चुप हो लेते  पर उसने कहकर किताब फेंक दी और बोला "क्या बकवास पढते रहते हो तुम लोग" हम लोगों ने add कर के बताया कि " भाई पता है तुझे वो लोग एक घर में रहकर भी अलग अलग कमरों में रहते थे। बोला " तुम्हें बडा पता है, तुम रात को बैडरूम चैक करने गए क्या? " और फिर खामखा की बहस हो गई कि वो नाराज हो गया और हम भी। 
बात अमृता की कहानी नहीं है भाई, देख तूने समझना है नहीं पर फिर भी खुदा न खास्ता ये  पढ़कर चुपके से scroll करना। बात अमृता की नहीं है न ही इमरोज़ और न साहिर या फिर न प्रीतम की है। बात है स्वच्छंद होकर भी दुनिया के कोनों में दुबके समाज के भौंडे उसूलों को तक देखकर तालमेल बना कर जीना। जहालत की हद यही है कि हमारे लिए हर दूसरी लड़की जो हमें भाव न दे, वो बर्बाद, मर्यादाहीन(दोस्त की जुबान में) चरित्रहीन हो जाती है। ठरक इतनी है कि पुरुष शौचालयों में तक एेसा एेसा लिख आते हैं मत पूछो। तर्क मर गया है, जरा दिमाग नहीं लगाते लड़के ,कि पुरूष शौचालय � में लड़की भला क्यों आएगी वो भी तब जब पूरी दुनिया में एेसे ही कुंठित  शौच लेखक घूम रहे हों। मंटो की कहीं पर कही बात याद आ रही है कि " जिस दिन से हम औरत के सीने को सीना मात्र समझकर कुछ और नहीं समझेंगे, तब ये सब कुकर्म और उत्पीड़न बंद हो जाएँगे "। अब इतनी लंबी पोस्ट ठेलने का मकसद सिर्फ इतना है कि block तू करेगा नहीं आखिर गाने में ही दूँगा तुझे, और आगे भी घूमने भी साथ जाना है जंगलों में चार लोग पढ लें और फिर लिख अपने विचार कमेंट में। एेसा है भाई ज्यादा फालतू नहीं बोलते। कम से कम बहस करते समय पंद्रह बीस मिनट तक जो भी तूने बोला याद करना और फिर सोचना। आज याद आ गई, सबक सिखाने की virtual फजीते से। खैर ये फोटो में वो लाईन हैं जो मैंने एक बेहतरीन 
(अमृता और इमरोज़ की किताब की वो पंक्तियाँ जो उस ब्लॉग में मिली)
 ब्लॉग में पढी थी फिर ही किताब ली। एक और बात , ये जो मर्यादा शब्द हैं  ना समाज ! .. इतना ज्यादा भी कॉम्प्लिकेटेड नहीं हैं.  ठीक हुआ फिर
थैंx.....!

धन्यवाद 

04 september 2016
11;00 pm

Thursday, 1 September 2016

भसड़पट्ट छीछैन हैगे हो माराज

हमारे कुमाऊनी में कोई चीज़ रायते की  तरह फैल जाती है या बहुत ज्यादा पकाऊ चटाऊ हो जाती है तो उसको #छीछैन कहते हैं और #पट्ट लगा देते हैं किसी भी चीज़ की अति बताने के लिए .
ये आजकल के जर्नलिस्ट लोग राजनीति बहुत बतियाते हैं , सब बतियाते हैं ये. राजनीति का कुछ होना नहीं है भला शायद तो क्यों इतना उछालते हैं इन नेताओ को ?? भाव ही मत दो क्या पता एक साल , दो साल , तीन साल में लाइन में आ जाएँ . हुज़ूर क्या करें हम ठहरे देसी , असली मसाला गॉसिप का तो राजनीति में ही है . विज्ञान , बाकी दुनिया के रहस्य में कहाँ है , है नई ? ? सोशल मीडिया से लेकर साड़ी मीडिया देख कर इस लगता है की देश में राजनीति के अलावा कुछ है ही नहीं . वाकई में राजनीति को हमने ही मुह लगा लगा कर बिगाड़ा है , कान खींचे होते तो इस नहीं होता. अब ना तो वो लोग सुधारते हैं और हम तो फिर हम ही हैं , छींटाकसी करते नहीं थकते. आफ्टरआल रियल एन्जॉय तो इसमें ही है ना ?
#भसड़पट्ट छीछैन हैगे हो माराज

आह दुष्यंत , आहा


[ पोस्ट थोड़ी लंबी है, मन हो तो ही पढना ] :-
 आज के ही दिन 1933 में नवादा(बिजनौर) के राजपुर में त्यागी जी का जन्म हुआ, सबका ही होता है कोई आश्चर्य नहीं है पर गजलों को हिंदी में कहने की अद्भुत प्रतिभा क्या खूब थी उनमें। जी हाँ दुष्यंत कुमार जी की ही बात हो रही है पिछले साल एक पिक्चर आई थी 'मसान' तो देखी ही होगी। बस बस ठहरो, पिक्चर में एक ठो गाना था "तू किसी रेल सी गुजरती है.."हाँ तो वो दुष्यंत जी की ही लिखी गजल की पंक्ति है।
(दुष्यंत और मैं)

बिना ज्यादा ज्ञान पेले ये बताना बेहद जरूरी है कि एक बार दुष्यंत को पढ लो तो लगेगा की कोई तुम्हारे भीतर से आवाज दे रहा है। दुष्यंत को पढना और समझना बिल्कुल भी clist नहीं है। और दर्शन तो इतना है कि बस्स पूछो मत। तो स्वानंद किरकिरे की आवाज़ में सुनो "तू किसी रेल सी.." और याद करो दुष्यंत को। वैसे वो गीत इस लाइन के बाद का वरूण ग्रोवर साब ने अपने अंदाज से लिखा पर जो भी है जड़ तो दुष्यंत ही हैं। तो सबसे पहले जो मुझे सबसे अच्छी लगती है उनकी रचना वो पढो:-(चुनिंदा कुछ पंक्तियाँ हैं, पूरा पढाने का लोड नहीं ले सकता पर फिर भी मेरे सामने गिडगिडाओगे तो पढा दूँगा, leave it all मजाक था, ये पढो। वैसे आपने पढी ही होगी)
#--> न हो क़मीज़ तो घुटनों से पेट ढक लेंगे
        ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिये

                                    यहाँ दरख़्तों के साये में धूप लगती है
                                     चलो यहाँ से चले और उम्र भर के लिये

                                                                    जिएँ तो अपने बग़ीचे में गुलमोहर के तले
                                                                    मरें तो ग़ैर की गलियों में गुलमोहर के लिये

           कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिये
           कहाँ चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिये....
<--#
�ये तो थी एक गजल, एेसी ही बहुत बहुत बेहतरीन रचनाएँ लिखी हैं उन्होंने...! एक और पढो फिर (बहुत ज्यादा प्रासंगिक हो रही है आजकल )
#--> कैसे मंजर सामने आने लगे हैं
गाते गाते लोग चिल्लाने लगे हैं

वो सलीबों के करीब आए तो
हमको कायदे-कानून समझाने लगे हैं

एक कब्रिस्तान में घर मिल रहा है
जिसमें तहख़ानों से तहख़ाने लगे हैं

मौलवी से डाँट खाकर अहले मकतब
फिर उसी आयत को दोहराने लगे हैं

(जिम कॉर्बेट के पास का पवलगढ़ )
अब नयी तहजीब के पेशे-नजर हम
आदमी को भूनकर खाने लगे हैं...."

केजरीवाल जी का फेवरेट anthem भी दुष्यंत की कलम से निकला
"हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए.. "

 किसको दुष्यंत की पंक्तियों के साथ अपना कोई ढंग का सा चित्र लगाना अच्छा ना लगता हो भला , तो हम भी लगा दिए . अब लगा ही दिए तो पढ़ भी लो यार
                              "   ये सारा जिस्म झुककर बोझ से दुहरा हुआ होगा
                                  मैं सजदे में नहीं था, आपको धोखा हुआ होगा

                                                      यहाँ तक आते-आते सूख जाती हैं कई नदियाँ,
                                                      मुझे मालूम है पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा.....!

                                                                                  -- दुष्यंत कुमार.. #HappyBirthdayDushyantKumar


दुष्यंत से मेरा परिचय बहुत पहले बचपन में ही हुआ था जब पिताजी के किताबों के ढेर से साए में धूप और सूर्य का स्वागत मिली। वो प्रतियाँ इतनी पुरानी थी कि दो साल पहले फट गई, खैर रट मुझे गया था सब तब तक, फिर भी वहीं नई खरीदी और, कुछ नहीं। दुष्यंत पसंद हैं, वजह नहीं पता। एक और रचना है, वो पूरी पढिएगा(चाहो तो)। मुझे तो पसंद है। बाकी " मत कहो आकाश में कोहरा घना है " तो समय समय पर मिल ही जाती हैं।
#HappyBirthdayDushyantKumar के साथ ही ये आखिरी पढो।
" तुम्हें याद होगा प्रिय
जब तुमने आँख का इशारा किया था
तब
मैंने हवाओं की बागडोर मोड़ी थीं,
ख़ाक में मिलाया था पहाड़ों को,
शीष पर बनाया था एक नया आसमान,
जल के बहावों को मनचाही गति दी थी....,
किंतु--वह प्रताप और पौरुष तुम्हारा था--
मेरा तो नहीं था सिर्फ़!

जैसे बिजली का स्विच दबे
औ’ मशीन चल निकले,
वैसे ही मैं था बस,
मूक...विवश...,
कर्मशील इच्छा के सम्मुख
परिचालक थे जिसके तुम।


आज फिर हवाएँ प्रतिकूल चल निकली हैं,
शीष फिर उठाए हैं पहाड़ों ने,
बस्तियों की ओर रुख़ फिरा है बहावों का,
काला हुआ है व्योम,
किंतु मैं करूँ तो क्या?
मन करता है--उठूँ,
दिल बैठ जाता है,
पाँव चलते हैं
गति पास नहीं आती है,
तपती इस धरती पर
लगता है समय बहुत विश्वासघाती है,
हौंसले, मरीज़ों की तरह छटपटाते हैं,
सपने सफलता के
हाथ से कबूतरों की तरह उड़ जाते हैं
क्योंकि मैं अकेला हूँ
और परिचालक वे अँगुलियाँ नहीं हैं पास
जिनसे स्विच दबे
ज्योति फैले या मशीन चले।

आज ये पहाड़!
ये बहाव!
ये हवा!
ये गगन!
मुझको ही नहीं सिर्फ़
सबको चुनौती हैं,
उनको भी जगे हैं जो
सोए हुओं को भी--
और प्रिय तुमको भी
तुम जो अब बहुत दूर
बहुत दूर रहकर सताते हो!

नींद ने मेरी तुम्हें व्योम तक खोजा है
दृष्टि ने किया है अवगाहन कण कण में
कविताएँ मेरी वंदनवार हैं प्रतीक्षा की
अब तुम आ जाओ प्रिय
मेरी प्रतिष्ठा का तुम्हें हवाला है!

परवा नहीं है मुझे ऐसे मुहीमों की
शांत बैठ जाता बस--देखते रहना
फिर मैं अँधेरे पर ताक़त से वार करूँगा,
बहावों के सामने सीना तानूँगा,
आँधी की बागडोर
नामुराद हाथों में सौंपूँगा।
देखते रहना तुम,
मेरे शब्दों ने हार जाना नहीं सीखा
क्योंकि भावना इनकी माँ है,
इन्होंने बकरी का दूध नहीं पिया
ये दिल के उस कोने में जन्में हैं
जहाँ सिवाय दर्द के और कोई नहीं रहा।

कभी इन्हीं शब्दों ने
ज़िन्दा किया था मुझे
कितनी बढ़ी है इनकी शक्ति
अब देखूँगा
कितने मनुष्यों को और जिला सकते हैं?..."

-- धन्यवाद

03-09-2016   10:00am   Vnod

Dear September.....

Dear September You're
looking to be more tepid this year. You were infct you're never my favourite month unlikely everyone claims you to be superb. However you & I've very deep chemistry probably. While I'm penning this, my feet are placed on your heat. I don't know what this sensation is, which you always gave me when you arrived. Earlier during school days post raging heat & afternoon torture in august travelling with sun above head, heading ahead to home in bicycle. You made me always hopeful about your arrival. Like of a father's pleasing arrival after day long office, similar to mother's glimpse near schoolgate after school bell or it's like a promise from elder sister of doing one's homework without any T & C. i can't guess of a girlfriend's reaction, which i never found. You always soothed me with your arrival. Well, you never facilitated with any achievement while your time span with me. I'd always been hatred for your siblings July & August for very few reasons, they used to deceive me unexpectedly at times. After intensive heat they made me wet on mid-way. Forlorn it was kinda matinee show to take shelter in small hut shops, or overhung puncture repair places(as per nearest availability) full of victims same as me watching rain Open-mouthed or gossiping which usually began and ended up with abuses. There's no school now, no bicycle so i can travel home. But the disappointment given by your siblings is still in me. I'm paralysed hearing the names of your younger ones. Your elders are undoubtedly awesome and most honourable for me. But dear sept. there's a fine anguish that you never made me achieved of anything either academics or any rest thing. Once I was fascinated by your younger bro August, when it poured consequent four winner rewards in its second last week quiz, debate, extempore,and poetry i guess that you were nearby so it happened. There was a more on teacher's day i was winner(for first time i considered you as my friend). Still the awards of those rewards are waiting for me in principal's rack. You would also have been disappointed that for first time you gave something but the careless i not attended annual day. The best thing with you and your next two elder brothers is , infact more of yours elders is that, they always passed in a great joy. October-January, i never remind of calculating time perhaps short days might be reason but no. There was an exception in this, with my friends i got addicted of counting the days remaining for Diwali vacations from the day of your beginning. So far there are no such more memories which can claim you "most memorable type" but there are few and those are such, will vanish 80 years later after I'll. I've affectionately fallen for you but have a great hatred for your juniors. You always gave a ray of hope via. your sunlight saying "achhey(dhoop wale) din aane waale hain", but was also fed up with long days, sometimes humid nights, eventuality in rain, lots of birthdays, and heartbroken stories of ex classmates (LOL). Have lots of complaints from your youngers,since the days of Day boarding to yet. Will lodge those reports to you on your first day of next session(iff possible). However you made me and my friends tensed while your days, interrupted our bogus games & gossips with exams. Remembering first 11 years of childhood days, I've my hands to play shadow games but don't have "that one September ". -Perhaps you've given me a lot despite of keeping emptied or vice versa. I love to hate you or vice versa- This time it seems that you're going to be greatly lukewarm for this session. Ah.! Dear September You're cool or hot i cant define.