हमेशा एक ओर से ही किसी पर रहम जतलाना सही नहीं होता। कुछ
दिनों पहले लखनऊ से नैनीताल घूमने जा रहे एक अंकल जी से ट्रेन में बहुत
लंबी बात हुई जो कि कश्मीर में ही पले बढे थे और जिंदगी का बेहतरीन हिस्सा
वहीं कटा था, नाम पूछना थोड़ा असभ्य सा महसूस हुआ इसलिए बीच में ही उनकी
बातों में से उनका सरनेम पता चला " धर" जी हाँ ये सरनेम सुनने के बाद आप
लोगों को लगेगा की वो कश्मीरी पंडित हैं, बिल्कुल हैं वो कश्मीरी पंडित ही
हैं। उनकी पैदाइश 1950के दशक की आखिर की थी, जैसा उन्होंने बताया, या
फिर यूँ कह लो कि जो सच्चे किस्से उन्होंने पूरे रस्ते भर सुनाए वो वाकई
में कहे जाने चाहिए, वो भी तब जब हम जैसे दो कौड़ी क लोग AFSPA पर बोलते
हैं तो गरिया दिए जाते हैं। तो अब ये भी सुन लीजिए थोड़ा अच्छा लगेगा पर
कश्मीरी पंडितों को बिल्कुल अच्छा नहीं लगा था जब उनके ही पुश्तैनी जगहों
में से उनको मवेशियों या खानाबदोशों की तरह खदेड़ दिया गया था। जी हाँ
जैसा धर अंकल जी ने बताया अब बता गी देता हूँ फालतू की भूमिका बहुत हो ली।
बात 1964 की है जब वो 7साल के थे तो उस समय सबको पता है कि जवाहरलाल नेहरू
की मृत्यु हुई थी। अब नेहरू जी मूलतः कश्मीरी पंडित थे ये भी पता है सबको
तो जाहिर सी बात है अपना बंदा प्रधानमंत्री बने और कौन खुश न हो भला, वो
भी पुराने टाइम के जैसे लोग। तो नेहरूजी कश्मीरी पंडितों में बहुत लोकप्रिय
और प्रिय थे, जब नेहरूजी की मृत्यु हुई तो शोक रैली किस्म का कुछ कश्मीरी
पंडितों ने किया। इसपर उस समय,सोचो उस समय वहाँ के बहुसंख्यकों ने भारी
पत्थर वर्षा (जिसको हम आज की तथाकथित पीढ़ी Stone pelting कहते हैं) कर
दी। कुछ घायल हुए। और जब अगले दिन किसी स्थल पर जहाँ पर नेहरूजी की
अस्थियां बहाई जानी थी, वहाँ पर भी डरावना माहौल बनाया गया था। ये माहौल
बनाया किसने था? जी हाँ बहुसंख्यकों ने। तो फिर पंडित नेहरू के मरने के
बाद एक तरह का धीमा धीमा मोर्चा सा खुल गया कश्मीरी पंडितों के विरोध में।
धर्म की ही उदारता रही होगी शायद कि रोज रोज का जहाँ तहाँ humiliation
झेलने पर भी पंडितों ने कभी कोई हिंसक घटना को अंजाम नहीं दिया। करते करते
सत्तर के दशक के अंत तक

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(पहलगाम की अरु घाटी ) |
कश्मीरी पंडितों के निष्कासन और भारत विरोधी माहौल बन गया,
पंडितों पर तंज कसे जाने लगे कि " अब तो कश्मीर पाकिस्तान में मिल जाएगा,
आप भी पाकिस्तानी हो जाओगे, तब क्या करोगे बाईसाब, आपने कश्मीर छोड़ना ही
होगा"
स्कूल, कॉलेजों और सरकारी दफ्तरों में धड़े बँट गए, Anti-India और Pro-India धर अंकल जी के अनुभवानुसार उनकी खुद कई बार एेसी खून खौलाने वाली बहसें हुई दफ्तर में। 1970 के अंत और 80 के दशक की शुरूआत में बहुसंख्यकों का पाकिस्तान आना जाना तेजी से बढ़ गया। वापिस आकर कॉलेज और दफ्तरों में पाकिस्तान के रावलपिंडी और न जाने कौन कौन से अन्य शहरों के विकास के कसीदे पढते। बहुसंख्यकों लोग मुजफ्फराबाद से प्रसारित कार्यक्रमों को तेज आवाज में चलाकर अपने पंडित पडोसियों को गुप्त रूप से चेताते कि बइया छोड़ दो कश्मीर। 1971-72 के आसपास कोई विमान हाईजैक हुआ लाहौर में और उसकी खुशी का इजहार कश्मीर में हुआ। 1985 से और बाद से ही वहाँ बीफ के बड़े बड़े टुकड़े झटका मीट शॉप में टंगने लगे।
फिर आती है 19 जनवरी 1990 की वो रात जब बहुसंख्यकों के प्रार्थना स्थलों से लाउडस्पीकरों में बोला जाता है कि "सभी पंडित यहाँ से भाग जाओ वर्ना अंजाम भुगतान के लिए तैयार रहो" उसके आगे के कश्मीरी पंडितों के पलायन की गाथा पूरी दुनिया जोर शोर से गाती है। ये तो थी एक synopsis मेरी और धर अंकल जी के कनवरसेशन की।
कहने का तात्पर्य ये है कि भई ये कौन सी इंसानियत या सहिष्णुता है कि तुम उनको ही उनकी ही जगह पर नहीं tolerate कर पा रहे हो जिनका कश्मीर पर 5000(पाँच हजार) साल पुराना इतिहास है। एेसा भी क्या खतरा उन लोगों से।
1989-90 की उत्तेजना को 1960 के दशक से ही नींव दे दी गई थी।
किसी भी धर्म को टारगेट करने का मकसद नहीं है इस पोस्ट से। बस ये कौनसा खुद का बनाया हिंसक जनमत संग्रह तैयार किया जो कि 1990 की वो सर्द रातों में लोगों ने जम्मू में शरण लेनी पड़ी। वो पंडित होने से पहले इंसान थे और आप बहुसंख्यक होने से पहले। खैर धर अंकल जी के कई दोस्त अभी भी कश्मीर में हैं और वो वहां के बहुसंख्यक हैं पर हर साल उनसे मिलने एेशबाग आते हैं और उनके लिए ढेरों ड्राई फ्रूट्स लाते हैं, गर्म ऊनी कपड़े लाते हैं। धर अंकल जी इस पूरे खेल को न ही मजहबी और न ही नफरत के चश्मे से देखते हैं। वो इंसानियत की उस आँख से वो सब देखते हैं जिसने उनको, उनके ही बगीचे, घर, गायें(जिनकी आजकल लोग रक्षा कर रहे हैं वोटों के लिए) छोड़ने पर विवश कर दिया और इतना डरा भी दिया कि अर्से तक सपनों में भी कश्मीर नहीं गए। अमीनाबाद या दिल्ली के राजौरी गार्डन घूमकर खुश रहे।
कहानी यहीं खत्म नहीं होती है अब आगे क्या हुआ, 1990 के पूरे दशक ने AFSPA का लोचा झेला, इसके नियम कानून तो गूगल में मिल ही जाएँगे। ये वो दशक था जब 1984-85 के बाद के बच्चे किशोर हो रहे थे तो वो उस अधर में थे कि जो इससे पहले हुआ वो सही था या फिर जो अब ये फौजी कर रहे हैं ये सही है। घरवालों से पूछते तो क्या कहते क्योकि जो भी 1990 में हुआ या तो उसमें वो भी शामिल होंगे या फिर अपने घनिष्ठ पड़ोसियों के लिए चुप्पी। तो हुआ यूँ कि वो जो जहर था वो थोड़ा कन्वर्ट होकर आर्म्ड फोर्सेस के लिए ढल गया क्योंकि Armed Forces ने भी बिना सूझ बूझ के किसी के साथ कुछ भी किया। उसपर भी बहुत किस्से हैं। कश्मीर जिस जनरेशन से अब गुलजार है वो दो पीढियां हैं 1970-90 और 90 के बाद की पीढियां। जिनकी पंडितों के पलायन में कोई भूमिका नहीं थी पर बड़ी तादाद में फौज के खिलाफ जरूर बंदूक और पत्थर उठाए। ये सब नफरत की वो chain/cycle है जिसमें ये पाँच चीजें अहम हैं :--
1. जनमत संग्रह का झूठा वादा हुआ।
2. कश्मीर पर हुई नजरअंदाजी।
3. विफल कश्मीर नीतियां।
4. AFSPA की विफलता कि वो लाखों की संख्या में भीतर होकर भी भीतर के ही लोगों को चरमपंथी बनने से नहीं रोक पा रही है।
5. पाकिस्तान का कुछ न होकर(न नौकरी न और कुछ) भी वहाँ के लोगों का उसके प्रति प्यार और ये नंबर1 की वजह से हो सकता है, हो सकता है। (दावा नहीं)
स्कूल, कॉलेजों और सरकारी दफ्तरों में धड़े बँट गए, Anti-India और Pro-India धर अंकल जी के अनुभवानुसार उनकी खुद कई बार एेसी खून खौलाने वाली बहसें हुई दफ्तर में। 1970 के अंत और 80 के दशक की शुरूआत में बहुसंख्यकों का पाकिस्तान आना जाना तेजी से बढ़ गया। वापिस आकर कॉलेज और दफ्तरों में पाकिस्तान के रावलपिंडी और न जाने कौन कौन से अन्य शहरों के विकास के कसीदे पढते। बहुसंख्यकों लोग मुजफ्फराबाद से प्रसारित कार्यक्रमों को तेज आवाज में चलाकर अपने पंडित पडोसियों को गुप्त रूप से चेताते कि बइया छोड़ दो कश्मीर। 1971-72 के आसपास कोई विमान हाईजैक हुआ लाहौर में और उसकी खुशी का इजहार कश्मीर में हुआ। 1985 से और बाद से ही वहाँ बीफ के बड़े बड़े टुकड़े झटका मीट शॉप में टंगने लगे।
फिर आती है 19 जनवरी 1990 की वो रात जब बहुसंख्यकों के प्रार्थना स्थलों से लाउडस्पीकरों में बोला जाता है कि "सभी पंडित यहाँ से भाग जाओ वर्ना अंजाम भुगतान के लिए तैयार रहो" उसके आगे के कश्मीरी पंडितों के पलायन की गाथा पूरी दुनिया जोर शोर से गाती है। ये तो थी एक synopsis मेरी और धर अंकल जी के कनवरसेशन की।
कहने का तात्पर्य ये है कि भई ये कौन सी इंसानियत या सहिष्णुता है कि तुम उनको ही उनकी ही जगह पर नहीं tolerate कर पा रहे हो जिनका कश्मीर पर 5000(पाँच हजार) साल पुराना इतिहास है। एेसा भी क्या खतरा उन लोगों से।
1989-90 की उत्तेजना को 1960 के दशक से ही नींव दे दी गई थी।
किसी भी धर्म को टारगेट करने का मकसद नहीं है इस पोस्ट से। बस ये कौनसा खुद का बनाया हिंसक जनमत संग्रह तैयार किया जो कि 1990 की वो सर्द रातों में लोगों ने जम्मू में शरण लेनी पड़ी। वो पंडित होने से पहले इंसान थे और आप बहुसंख्यक होने से पहले। खैर धर अंकल जी के कई दोस्त अभी भी कश्मीर में हैं और वो वहां के बहुसंख्यक हैं पर हर साल उनसे मिलने एेशबाग आते हैं और उनके लिए ढेरों ड्राई फ्रूट्स लाते हैं, गर्म ऊनी कपड़े लाते हैं। धर अंकल जी इस पूरे खेल को न ही मजहबी और न ही नफरत के चश्मे से देखते हैं। वो इंसानियत की उस आँख से वो सब देखते हैं जिसने उनको, उनके ही बगीचे, घर, गायें(जिनकी आजकल लोग रक्षा कर रहे हैं वोटों के लिए) छोड़ने पर विवश कर दिया और इतना डरा भी दिया कि अर्से तक सपनों में भी कश्मीर नहीं गए। अमीनाबाद या दिल्ली के राजौरी गार्डन घूमकर खुश रहे।
कहानी यहीं खत्म नहीं होती है अब आगे क्या हुआ, 1990 के पूरे दशक ने AFSPA का लोचा झेला, इसके नियम कानून तो गूगल में मिल ही जाएँगे। ये वो दशक था जब 1984-85 के बाद के बच्चे किशोर हो रहे थे तो वो उस अधर में थे कि जो इससे पहले हुआ वो सही था या फिर जो अब ये फौजी कर रहे हैं ये सही है। घरवालों से पूछते तो क्या कहते क्योकि जो भी 1990 में हुआ या तो उसमें वो भी शामिल होंगे या फिर अपने घनिष्ठ पड़ोसियों के लिए चुप्पी। तो हुआ यूँ कि वो जो जहर था वो थोड़ा कन्वर्ट होकर आर्म्ड फोर्सेस के लिए ढल गया क्योंकि Armed Forces ने भी बिना सूझ बूझ के किसी के साथ कुछ भी किया। उसपर भी बहुत किस्से हैं। कश्मीर जिस जनरेशन से अब गुलजार है वो दो पीढियां हैं 1970-90 और 90 के बाद की पीढियां। जिनकी पंडितों के पलायन में कोई भूमिका नहीं थी पर बड़ी तादाद में फौज के खिलाफ जरूर बंदूक और पत्थर उठाए। ये सब नफरत की वो chain/cycle है जिसमें ये पाँच चीजें अहम हैं :--
1. जनमत संग्रह का झूठा वादा हुआ।
2. कश्मीर पर हुई नजरअंदाजी।
3. विफल कश्मीर नीतियां।
4. AFSPA की विफलता कि वो लाखों की संख्या में भीतर होकर भी भीतर के ही लोगों को चरमपंथी बनने से नहीं रोक पा रही है।
5. पाकिस्तान का कुछ न होकर(न नौकरी न और कुछ) भी वहाँ के लोगों का उसके प्रति प्यार और ये नंबर1 की वजह से हो सकता है, हो सकता है। (दावा नहीं)
धर अंकल जी का यही मानना है कि कश्मीर को हमेशा टरकाया गया।
अब हम सहिष्णु लोग चाहे तो IAS के दूसरे टॉपर को ही बुरहान वानी से तौल दें
जो कि एेसा जाहिल काम है। अब भला हमारा IAS कैसे आतंकवादी हो सकता है
जिसके खुद के पद के आगे Indian लगा हो। उन्हीं IAS Dr Shah Feisal के
शब्दों में "India play a role of a father who sent money but never
comes home"
P.s- इस पोस्ट का कतई मतलब एक पक्षीय बात करना नहीं था या फिर किसी को offend करना नहीं था, इसलिए बहुसंख्यकों को बहुसंख्यक ही लिखा, अब पंडितों का पलायन तो पंडित शब्द से ही ज्ञात है सब लोगों को तभी वो वैसे ही रहा, बाकी ये कोशिश थी तर्क और थोड़ी बहुत तह बताने की बाकी आपकी मर्जी। बाकी गाली खाने की आदत सी है कभी इसकी तो कभी उसकी.
धन्यवाद
-- विनोद
P.s- इस पोस्ट का कतई मतलब एक पक्षीय बात करना नहीं था या फिर किसी को offend करना नहीं था, इसलिए बहुसंख्यकों को बहुसंख्यक ही लिखा, अब पंडितों का पलायन तो पंडित शब्द से ही ज्ञात है सब लोगों को तभी वो वैसे ही रहा, बाकी ये कोशिश थी तर्क और थोड़ी बहुत तह बताने की बाकी आपकी मर्जी। बाकी गाली खाने की आदत सी है कभी इसकी तो कभी उसकी.
धन्यवाद
-- विनोद
© vinod atwal July29,2016. 9;00pm
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