Friday, 12 August 2016

मैं मरना नहीं चाहता

मैं मरना नहीं चाहताबहुत अजीब है ना?  बिल्कुल अजीब है। हो भी क्यों न?  भला ये भी कोई बात हुई बताने कि "मैं मरना नहीं चाहता "?
मजा तो दुनिया को वो खत पढने में आता है जिसे Suicide Note कहते हैं, क्योंकि ये बहुत पहले ही विद्वान कह गए हैं कि "The world never stand with living, it always Stoodleigh with corpse" अर्थात ये कि किसी के जिंदा होने पर दुनिया को कोई फर्क नहीं पड़ता पर उसके मरते ही पूरी दुनिया उसकी हो जाती है।
    अब आते हैं मुद्दे पर कि मैं क्यों नहीं मरना चाहता..?
मैं नहीं मरना चाहता और साथ ही न किसी को मरा देखना चाहता हूँ।  क्योंकि मैं नहीं चाहता कि मेरा जीवन इतनी जल्दी समाप्त हो जाए कि मैं किसी के भी जीवन को बेहतर करने में योगदान न दे पाऊँ, दुनिया में बहुत लाचारी है और लाचारी के मारे लोग बहुत दुखी हैं। मैं चाहता हूँ कि किसी की तो कम से कम लाचारी कम कर जाऊँ। 
   मैं नहीं मरना चाहता क्योंकि अगर जीते हुए ही दुनिया न देख पाए तो पैदा होने का ही क्या फायदा। 
ताज्जुब है जो लोग मर जाते हैं, ताज्जुब है कि शरीर नश्वर है फिर भी लोग पूरा जीवन अपने नीच स्वार्थों में काट देते हैं। अब स्वार्थ कह ही रहा हूँ तो ये भी तो मेरा स्वार्थ है कि "मैं मरना नहीं चाहता " हाँ है,बिल्कुल है। पर इसमें कोई नीचता नहीं है। क्यों? 
चलो समझाता हूँ,  मैं देखना चाहता हूँ कि कैसे इतने लोग बसे, जानना चाहता हूँ कि क्या था वो इतिहास जिसके कारण हमारा वर्तमान है।  नीचता का स्वार्थ इसलिए नहीं है क्योंकि मुझे लोभ भी नहीं है किसी चीज का।  दुनिया की नजरों में भले ही मुझ जैसों को पागल/बेवकूफ़ कह दिया जाता हो पर ये तो बता दो कि जीवन भर शुंअर बनकर खुद का उदर भरना,  दूसरो से जलना,ईर्ष्या रखना, दान के नाम पर खुद के भय के मारे एक कटोरा शनिवार को दे देना ये कौन से अच्छे लोगों के काम हैं भई?  अगर ये अच्छे लोग होते हैं तो हम लोग पागल ही सही। एेसे ही मजा आएगा नि?  चलने के लिए भगवान् ने पैर दिए हैं, और दिमाग दिया है तो दिमाग इस्तेमाल कर के चलते रहने में ही भलाई है। 
तब तक की जब तक पैर के छाले न फूट पड़ें और फिर आराम कर के चलते रहना। चलते ही जाना

© vinod atwal
Written on - January 14,2015

Review: Rustom में ज़ी न्यूज़ के संपादकों का मिनी रूप भी

Cynthia Pavri  मुझे बर्फी मूवी से ही अच्छी  लगती हैं . हालांकि ज्यादा पिच्चरों में नहीं आयी इसलिए टाइम लगा पंद्रह मिनट सोचने में की कहाँ देखि , कहाँ देखी ? अब जब मुझे ही अच्छी लगी तो भला पिच्चर के विलन को क्यों ना अच्छी लगती . तो हो गया स्यापा . बचपन से एक कहावत स्कूल के बच्चों के मुह से जब तब फूटती थी की " फौजी फौज में , पड़ोसी मौज़ में ." हाँ तो डायरेक्टर ने पूरा फोकस इसी घिसे पीते फॉर्मूले पर दिमाग खपाकर बनाई है रुस्तम. पति नेवी में कमांडर है , बीवी(Elina D'cruz) हर्ट है तो कोई और मर्द(अर्जन बाजवा ) उसको कुछ समय टाइम पास करा देता है . पति(रुस्तम पावरी)  लौटता है तो प्रेम की पाती पढ़ लेता है गुस्से में जाकर धाईं धाईं धाईं कर के तीन गोलियां विलेन(अर्जन बाजवा ) के दिल में उतार देता है . सरेंडर कर देता है पति. बाकी की भसड़ चलती रहती है . कोर्ट कचहरी चलती है . रुस्तम जो की नेवी में है तो कुछ पंगे वहां भी होते हैं उसकी ईमानदारी की वजह से, जिसको वो हथियार बना कर कुछ ऐसी तिकड़म कर लेता है की " सांप मरे ना लाठी टूटे ". 
पिक्चर का फर्स्ट हाफ चूहा दौड़ में लगा रहता है . दूसरा हाफ अच्छा कह दे रहा हूँ  . अब कह रहा हूँ  तो मतलब ढंग का लगा तभी . एक अखबार  मालिक ने कॉमेडी कर के कॉमेडी की ही धज्जियां कर दी हैं बाकी इंडियन ड्रामा टाइप है मूवी. आप लोगों को ज़रूर अछि लगेगी . मुझे भी लगी अच्छी...?
सबसे अच्छा पार्ट मुझे कोर्ट के अंदर की सुनवाई का लगा. थोड़ा दिमाग लगाओगे  तो पता चलेगा की आजकल की उन्मादी भीड़ (जो बस  बिना सोचे समझे extreme perception बना लेती हैं, मसाला  खबर  या मामला मिलने पर) जो कभी भी कसी भी बात पर खुस और कहीं पर भी नाराज़ हो जा रही थी. अखबार  या  खबर के पैरोकारों की भी अच्छी क्लास लेती है पिक्चर .
      हम किसी भी  खबर पर कितनी जल्दी विश्वास कर लेते हैं ना. इसका फायदा पिक्चर में अखबार  मालिक बहुत उठाता है और वो भीड़ के मूड को बार बार बदलने में कारगर साबित होता है . आजकल भी तो यही  ही हो रहा है ना ? हो रहा है ? चलो खुद से पूछ लो देशभक्तो .. पिक्चर में आजकल के एक देशभक्त और सामजसेवी चैनल ज़ी न्यूज़ के एक संपादक सुधीर चौधरी जी से प्रेरित एक मिनी सुधीर चौधरी बच्चा बना है 
 नीरज पांडेय की पिक्चरों की यही बात(समाज की राग पकड़ने वाली ) मुझे बहुत अच्छी लगती है. उनकी हर एक पिक्चर आम आदमी ( पार्टी वाली नहीं हाँ ) की आम ज़िन्दगी और मानसिकता का पहलु और पल्लू दोनूँ थाम लेती है.
सबसे अच्छे  पिक्चर के लास्ट में  पंद्रह बीस मिनट लगते हैं जब पता चलता है की विलेन को मारने की वजह रुस्तम की बीवी का short term प्रेम नहीं होता बल्कि कुछ और होता है. वहां पर सस्पेंस खुलता है और हम
( मतलब  मैं, आप सब ) ठगे से रह जाते हैं की जो अभी तक चल रहा था ये कुछ और ही था . इसी तरह की एक हॉलीवुड मूवी  है बहुत पुरानी,  नाम याद नहीं आ रहा, शायद नीरज जी ने वो देखी ,देखी  ही होगी. जो भी है आप जा सकते हैं देखने क्योंकि इसमें कलर्स, स्टार प्लस के  daily soaps का भी पूरा फ्लेवर है . पवित्र रिश्ता की आई और खिचड़ी के बाबूजी ने पिक्चर को अच्छा होते होते बचा लिया...
Elina D'cruz तो बहुत सुन्दर हैं ही , एक्टिंग भी अच्छी करती हैं(बर्फी बहुत अच्छी थी उनकी). अक्षय कुमार अब भले ही Canadian  भी हो गए हों पर हम देशभक्तो के लिए बहुत मसाला मूवी दे रहे हैं . इस लगता है मानो सरकार से ज्यादा काम तो देश के लिए वही कर रहे हैं इसलिए ज्यादा असर नहीं है उनकी प्रजेंस का. एयरलिफ्ट टाइप की लगती है कहीं कहीं तो . मेरा सबसे fvourite  scene  वो था जब अक्षय अर्जन बाजवा के घर जाते हैं और उस से पूछते हैं की "विक्रम तुम सिंथिया से शादी करोगे ? " मतलब ये है की इंसान को इतना सहज और स्वीकार्य होना चाहिए. हालांकि बाद में पता चलता है की इस कोई scene  घटित नहीं हुआ था वो सब अक्षय का तिकड़म था . अब वही सस्पेंस जा ने के लिए सबने मूवी देखनी चाहिए
पिच्चर जब बहुत appealing  दिखे तो दो चीज़ें होती हैं या तो बहुत बोरिंग होती है या फिर बहुत interesting  कुछ दिनों पहले सुल्तान नाम की पिच्चर भी हवाबाज़ी के चलते, भाई के नाम के चलते बहुत जेबें गरम ठंडी दोनु कर गयी . क्योंकि आप पर है ना की आपको केसी लगी . चलो मैं यहीं बक देता हु की मैं आज रूस्तम देख आया . जिस जिसको खामखा की बकैती काटना या फिर देखना अच्छा लगता हो . उन लोगो के लिए तो ये लाजवाब पिच्चर है .
अब जाकर देख भी आओ यार...
ऋतिक रोशन  की मोहेंजो दारो भी देखी उसके लिए भी लिखेंगे कुछ टाइम में तब तक ये पिक्चर देखो.
--> धन्यवाद <---
विनोद

© vinod atwal
12 August 2016, Friday

Thursday, 11 August 2016

मेरी कविता: ज़िन्दगी


(Photo courtsey due with thanks to owner/photographer)
चाहतों की मय्यत ही है जिंदगी
ख्वाहिशों के जो हर रोज होते हैं कत्ल
बोझ न उठा पाने के बहानों का नाम है जिंदगी...!
बारिशों में छाता होकर भी
जो हम भीग जाते हैं अक्सर
भीग जाने के उन्हीं धोखों का नाम है जिंदगी....!

बहुत खूब पसंद है हमको भी ये
पर हर वक्त एक जो डर है, वो डर,
ख्वाबों के मुकम्मल होने का, जो हमेशा डराता है
चीनी मिट्टी के बर्तन से गिरकर ख्वाब बिखर जाने का नाम है जिंदगी..!
-- विनोद

© vinod atwal   .   (July17, 2016. 11:00pm)

किस्सा-ए-कश्मीर #KahmirConflict


हमेशा एक ओर से ही किसी पर रहम जतलाना सही नहीं होता। कुछ दिनों पहले लखनऊ से नैनीताल घूमने जा रहे एक अंकल जी से ट्रेन में बहुत लंबी बात हुई जो कि कश्मीर में ही पले बढे थे और जिंदगी का बेहतरीन हिस्सा वहीं कटा था,  नाम पूछना थोड़ा असभ्य सा महसूस हुआ इसलिए बीच में ही उनकी बातों में से उनका सरनेम पता चला " धर" जी हाँ ये सरनेम सुनने के बाद आप लोगों को लगेगा की वो कश्मीरी पंडित हैं, बिल्कुल हैं वो कश्मीरी पंडित ही हैं।  उनकी पैदाइश 1950के दशक की आखिर की थी,  जैसा उन्होंने बताया,  या फिर यूँ कह लो कि जो सच्चे किस्से उन्होंने पूरे रस्ते भर सुनाए वो वाकई में कहे जाने चाहिए,  वो भी तब जब हम  जैसे दो कौड़ी क लोग AFSPA पर बोलते हैं तो गरिया दिए जाते हैं। तो अब ये भी सुन लीजिए थोड़ा अच्छा लगेगा पर कश्मीरी पंडितों को बिल्कुल अच्छा नहीं लगा था जब उनके ही पुश्तैनी जगहों में से उनको मवेशियों या खानाबदोशों की तरह खदेड़ दिया गया था।  जी हाँ जैसा धर अंकल जी ने बताया अब बता गी देता हूँ फालतू की भूमिका बहुत हो ली। बात 1964 की है जब वो 7साल के थे तो उस समय सबको पता है कि जवाहरलाल नेहरू की मृत्यु हुई थी।  अब नेहरू जी मूलतः कश्मीरी पंडित थे ये भी पता है सबको तो जाहिर सी बात है अपना बंदा प्रधानमंत्री बने और कौन खुश न हो भला,  वो भी पुराने टाइम के जैसे लोग। तो नेहरूजी कश्मीरी पंडितों में बहुत लोकप्रिय और प्रिय थे,  जब नेहरूजी की मृत्यु हुई तो शोक रैली किस्म का कुछ कश्मीरी पंडितों ने किया। इसपर उस समय,सोचो उस समय वहाँ के बहुसंख्यकों ने भारी पत्थर वर्षा (जिसको हम आज की तथाकथित पीढ़ी Stone pelting कहते हैं)  कर दी। कुछ घायल हुए।  और जब अगले दिन किसी स्थल पर जहाँ पर नेहरूजी की अस्थियां बहाई जानी थी, वहाँ पर भी डरावना माहौल बनाया गया था।  ये माहौल बनाया किसने था?  जी हाँ बहुसंख्यकों ने।    तो फिर पंडित नेहरू के मरने के बाद एक तरह का धीमा धीमा मोर्चा सा खुल गया कश्मीरी पंडितों के विरोध में। धर्म की ही उदारता रही होगी शायद कि रोज रोज का जहाँ तहाँ humiliation झेलने पर भी पंडितों ने कभी कोई हिंसक घटना को अंजाम नहीं दिया। करते करते सत्तर के दशक के अंत तक
(पहलगाम की अरु घाटी )
कश्मीरी पंडितों के निष्कासन और भारत विरोधी माहौल बन गया, पंडितों पर तंज कसे जाने लगे कि " अब तो कश्मीर पाकिस्तान में मिल जाएगा, आप भी पाकिस्तानी हो जाओगे,  तब क्या करोगे बाईसाब, आपने कश्मीर छोड़ना ही होगा"
    स्कूल,  कॉलेजों और सरकारी दफ्तरों में धड़े बँट गए,  Anti-India और Pro-India धर अंकल जी के अनुभवानुसार उनकी खुद कई बार एेसी खून खौलाने वाली बहसें हुई दफ्तर में। 1970 के अंत और 80 के दशक की शुरूआत में बहुसंख्यकों का पाकिस्तान आना जाना तेजी से बढ़ गया।  वापिस आकर कॉलेज और दफ्तरों में पाकिस्तान के रावलपिंडी और न जाने कौन कौन से अन्य शहरों के विकास के कसीदे पढते।  बहुसंख्यकों लोग मुजफ्फराबाद से प्रसारित कार्यक्रमों को तेज आवाज में चलाकर अपने पंडित पडोसियों को गुप्त रूप से चेताते कि बइया छोड़ दो कश्मीर। 1971-72 के आसपास कोई विमान हाईजैक हुआ लाहौर में और उसकी खुशी का इजहार कश्मीर में हुआ।  1985 से और बाद से ही वहाँ बीफ के बड़े बड़े टुकड़े झटका मीट शॉप में टंगने लगे।
फिर आती है 19 जनवरी 1990 की वो रात जब बहुसंख्यकों के प्रार्थना स्थलों से लाउडस्पीकरों में बोला जाता है कि "सभी पंडित यहाँ से भाग जाओ वर्ना अंजाम भुगतान के लिए तैयार रहो" उसके आगे के कश्मीरी पंडितों के पलायन की गाथा पूरी दुनिया जोर शोर से गाती है।   ये तो थी एक synopsis मेरी और धर अंकल जी के कनवरसेशन की। 
    कहने का तात्पर्य ये है कि भई ये कौन सी इंसानियत या सहिष्णुता है कि तुम उनको ही उनकी ही जगह पर नहीं tolerate कर पा रहे हो जिनका कश्मीर पर 5000(पाँच हजार)  साल पुराना इतिहास है।  एेसा भी क्या खतरा उन लोगों से।
1989-90 की उत्तेजना को 1960 के दशक से ही नींव दे दी गई थी। 
    किसी भी धर्म को टारगेट करने का मकसद नहीं है इस पोस्ट से।  बस ये कौनसा खुद का बनाया हिंसक जनमत संग्रह तैयार किया जो कि 1990 की वो सर्द रातों में लोगों ने जम्मू में शरण लेनी पड़ी।  वो पंडित होने से पहले इंसान थे और आप बहुसंख्यक होने से पहले। खैर धर अंकल जी के कई दोस्त अभी भी कश्मीर में हैं और वो वहां के बहुसंख्यक हैं पर हर साल उनसे मिलने एेशबाग आते हैं और उनके लिए ढेरों ड्राई फ्रूट्स लाते हैं, गर्म ऊनी कपड़े लाते हैं।  धर अंकल जी इस पूरे खेल को न ही मजहबी और न ही नफरत के चश्मे से देखते हैं। वो इंसानियत की उस आँख से वो सब देखते हैं जिसने उनको, उनके ही बगीचे,  घर,  गायें(जिनकी आजकल लोग रक्षा कर रहे हैं वोटों के लिए)  छोड़ने पर विवश कर दिया और इतना डरा भी दिया कि अर्से तक सपनों में भी कश्मीर नहीं गए।  अमीनाबाद या दिल्ली के राजौरी गार्डन घूमकर खुश रहे।
    कहानी यहीं खत्म नहीं होती है अब आगे क्या हुआ,  1990 के पूरे दशक ने AFSPA का लोचा झेला, इसके नियम कानून तो गूगल में मिल ही जाएँगे।  ये वो दशक था जब 1984-85 के बाद के बच्चे किशोर हो रहे थे तो वो उस अधर में थे कि जो इससे पहले हुआ वो सही था या फिर जो अब ये फौजी कर रहे हैं ये सही है। घरवालों से पूछते तो क्या कहते क्योकि जो भी 1990 में हुआ या तो उसमें वो भी शामिल होंगे या फिर अपने घनिष्ठ पड़ोसियों के लिए चुप्पी।  तो हुआ यूँ कि वो जो जहर था वो थोड़ा कन्वर्ट होकर आर्म्ड फोर्सेस के लिए ढल गया क्योंकि Armed Forces ने भी बिना सूझ बूझ के किसी के साथ कुछ भी किया। उसपर भी बहुत किस्से हैं। कश्मीर जिस जनरेशन से अब गुलजार है वो दो पीढियां हैं 1970-90 और 90 के बाद की पीढियां।  जिनकी पंडितों के पलायन में कोई भूमिका नहीं थी पर बड़ी तादाद में फौज के खिलाफ जरूर बंदूक और पत्थर उठाए।  ये सब नफरत की वो chain/cycle है जिसमें ये पाँच चीजें अहम हैं :--
1. जनमत संग्रह का झूठा वादा हुआ।
2. कश्मीर पर हुई नजरअंदाजी।
3. विफल कश्मीर नीतियां।
4. AFSPA की विफलता कि वो लाखों की संख्या में भीतर होकर भी भीतर के ही लोगों को चरमपंथी बनने से नहीं रोक पा रही है।
5. पाकिस्तान का कुछ न होकर(न नौकरी न और कुछ) भी वहाँ के लोगों का उसके प्रति प्यार और ये नंबर1 की वजह से हो सकता है, हो सकता है। (दावा नहीं)
धर अंकल जी का यही मानना है कि कश्मीर को हमेशा टरकाया गया। अब हम सहिष्णु लोग चाहे तो IAS के दूसरे टॉपर को ही बुरहान वानी से तौल दें जो कि एेसा जाहिल काम है। अब भला हमारा IAS कैसे आतंकवादी हो सकता है जिसके खुद के पद के आगे Indian लगा हो। उन्हीं IAS Dr Shah Feisal के शब्दों में "India play a role of a father who sent money but never comes home"
P.s- इस पोस्ट का कतई मतलब एक पक्षीय बात करना नहीं था या फिर किसी को offend करना नहीं था,  इसलिए बहुसंख्यकों को बहुसंख्यक ही लिखा,  अब पंडितों का पलायन तो पंडित शब्द से ही ज्ञात है सब लोगों को तभी वो वैसे ही रहा, बाकी ये कोशिश थी तर्क और थोड़ी बहुत तह बताने की बाकी आपकी मर्जी।  बाकी गाली खाने की आदत सी है कभी इसकी तो कभी उसकी.
धन्यवाद
-- विनोद


© vinod atwal   July29,2016.  9;00pm  

12 वाँ जन्मदिन ....

तब मैं बहुत छोटा था, बेशक आज भी हूँ। हमेशा छोटा ही रहूँगा ताकि वो सारे बचपन के बीते दिन न भूल पाऊँ। हर किसी छोटे बच्चे की तरह मुझे भी यह पता था कि जो लोग दुनिया से विदा हो जाते हैं वो या तो तारे बन जाते हैं या फिर दोबारा जन्म लेते हैं। 07 अगस्त के वो सारे आपके साथ बिताए पल दिमाग में मैथ्स के किसी फार्मूले की तरह इस कदर रचे बसे हैं कि आपके साथ गुजरे उन दस सालों का नशा आजीवन नहीं उतरेगा।
(Papa in his early thirties)

अगर आप तारे बन गए हो तो शायद वहीँ होंगे जिन्हें मैं बिना बादल के दिनों में वर्षों से कभी कभी  सुबह पौ फटते ही पूरब में अर्घ्य चढ़ाते देखता हूँ या रात में गिनती करता हूँ कभी तो बार बार भूलकर आप(तारे) से ही वापस शुरू करता हूँ। और अगर आप बच्चे हो तो आपको आपके बारहवें जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनाएँ, जीते जी कभी न कभी किसी मोड़ पर मिलना जरूर। आसमाँ भर देखने की जो टीस रह गई है, उसे पूरा करूँगा। जब भी मंदिर में देखता हूँ तो शाम की वो प्रार्थनाएँ (दया कर दान विद्या का,वह शक्ति हमें दो...) याद आती हैं और सुबह-शाम की आकाशवाणी पर वंदे मातरम याद आ जाता है। 12वाँ जन्मदिन। मतलब जितना मैं तब था उस से भी बड़े हो गए हैं आप..? खैर एक इच्छा और है, सपनों में आते रहा करो और बात भी कर लिया करें। आपकी आवाज को मेरे कान तरस गए हैं, दुनिया तो इतना ज्यादा बोलती है कि कानों से खून निकल जाए पर जिसकी आवाज की दरकार मुझे है आपकी वो आवाज कभी नहीं मिलती। सुना है जो लोग चले जाते हैं वो सपनों में बोलते नहीं। अक्सर जब भी आप सपनों में आए, सुबह मैंने आँखों पर आँसू ही पाए। बगल में ढूँढता रहा पर फिर भ्रम टूटता है और फूटकर रोने के सिवा कुछ न रहता है।
जो डायरी लिखनी, रस्किन-चंपक- विज्ञान प्रगति पढ़ना, हारमोनियम बजाना सिखाया था वो नहीं भूला हूँ और न ही भूलूंगा।
वैसे फेसबुक नई चीज जुड़ गई है। आज आप होते तो पता है आपका भी अकाउंट होता और आपको मैं ब्लॉक थोड़ी करता आप तो मेरे दोस्त थे ना....? काश!
आपका बेटा,
पापा ......


(in memoir of an era and the remaining time which passed without you 08th-Aug-2016, 9;00a.m)

Saturday, 6 August 2016

16 साल का था जब मोज़र निकली

यूँ ही एक दिन कही बैठे बैठे  ये लोग दिख गए . अब ये थोड़ी बताऊंगा की कहाँ बैठा था नहीं तो आपको पता नहीं चल जायेगा की रोड के किनारे चबूतरे पर तशरीफ़ रखी थी हमने . खैर अब रख ही दी तो आगे भी सुन लो .
  उंगलियां "दी गार्डियन" की साइट पर खुरपेंच कर ही रही थी की सामने नज़र  रुक गयी . नज़र तो रुकी ही थी पर नज़र रुकी, रुकी हुई स्कूटी पर . मतलब ये की सामने स्कूटी रुकी तो नज़र रुकी.  नहीं पढ़ पाया स्कूटी की कंपनी का नाम . निकटदृष्टि दोष (अँगरेज़ Myopia कहकर जा रखै हैं ) अगली बार ज़रूर बताऊंगा .
 हाँ तो हम कहाँ थे , स्कूटी रुक गयी . तब तक भी हम " दी गार्डियन " पढ़े जा रे थे , दलित आंदोलन चल रहा था, साइट पर भी , दिमाग में भी और गुजरात में तोह चला ही रहा है माने तीनो जगह. स्कूटी कब रुकी पता ही नहीं चला , अचानक ही रुकी होगी ना ? हाँ अचानक रुकी फिर . उफ़ बात आगे बढ़ ही नहीं रही है . स्कूटी रुकी तो सुनाई पड़ा की जल्दी यानी झट से अमीर हनी का जिक्र छिड़ चूका था , किसके बाप का दलित समाचार , किसका गार्डियन . यार बात हो अमीर बनने की वो भी शॉर्टकट से तो भला कोई दूसरे ग्रह का ही होगा जो नहीं सुनी . हम कान लगा के सुनने लग पडे , हम अकेले थे , हाँ हम तो थे पर अकेले बैठी थे.
   हाँ तो हम कहाँ थे ? बात निकली अम्बानी बनने की. हमने भी कान सटा दिए .

 हज़रात तो दिल थाम कर बैठ जाइये क्योंकि  जो मैं अब आगे बताने जा रहा हूँ उस से आपको हृदयघात भी हो सकता  है .  अबे डरते क्यों हो ना  होगा अभी  ही दुआ करे हैं हम आपके लिए.जी हाँ आगे यूँ हुआ की जो आदमी हरी रंग की टी शर्ट में दिख रहा है , वैसे दिख तो हरे रंग में  दो रहे हैं नि ? आँखें मलिए , मल ली ? अच्छा तो मल ली तो फिर एक बार मुह भी धो लीजिये . इसका कष्ट आप नहीं करेंगे, आलसी जो हो हमारी तरह , ठिकी ठहरा . अब देखो , अरे आप अगर मुह धो भी लेते तो भी आपको वो दो हरी टी शर्ट दिखती. चंद्रकांता का ज़माना गया यार, बी  लॉजिकल जब दो लोग हैं और दोनू ने ही हरी टी शर्ट पहनी हैं (जो उनकी यूनिफार्म है शायद) तो फिर आकि ज़ुर्रत कैसे हुई की आप  हमारे आँखें मलने और मुह धुलने धुलवाने के बहकावे में आ गए .
 हमें पता है आपने मुह नहीं धोया, आप धोते भी नहीं होंगे, हम चेहरे की बात कर रहे हैं हाँ . पर आप आँखें ज़रूर मल लिए थे ना ? मलने का फायदा उठाओ और आगे पढ़ो . स्कूटी वाले ने कंगाली की कोई व्यथा ज़ाहिर की तो ये दाहिने हाथ में स्कूटी वाले के पास वाले 'अर्थशास्त्र के दिग्गज महोदय ने सैमिनार  शुरू की " How to be rich " बताने लगे (हाथ हिला हिला कर ) की कैसे कैसे लोग देखे हैं उन्होंने अमीर होते हुए . कह ही रहे थे की उन्हें , उनके जवानी के दिन याद आ गए जब वो विधिवत जवान हो रहे थे .
      एक लड़का था विकास नाम का (ध्यान रहे मोदी जी वाला विकास नहीं हाँ ) उनके पड़ोस के मोहल्ले में . तो जो अर्थशास्त्री चचा ने कहा उनके ही फीलिंग्स में कह दूँ ? नहीं भी चहोहोगे तो भी मैं बताऊंगा ही जो उखाड़ सको उखाड़ लो .
" अरे हमऊ देखै रहे , लौंडा जवान ही रा था . छंटा हुआ बदमाश सा भी ना लगा , बच्चा सा ही था. पैले हमाए लोगन के साथ ही साफ़ सफाई, झाड़ू  करता था फिर करते करते लोहा इकट्ठा करने लगा . लोहा इक्क्ठा कर चुराने भी लगा. का ढेर लगा दिया वो लोहे का .
खूब लोहा चुराया वो . चालु बहुत रहा वो . उसने गैंग बना ली बहुतै बड़ी , चार case  हुए उसपर . केस ही गए पर पुलिस जान ना पा कैसा दिखै वो , वो भी कर्मचीलोणा  एक जगह टिकी ना कभी इधर कभी उधर. गाँवों में का रुतबा कर लिया वो , पूछो मत साहब . गाँव वाले स्वागत करते . एको दिन पुलिस पूरी फाॅर्स लेकर जान कहाँ कहाँ से पता कर कर धार दी ओ . देखा, तलाशी ली . चौनक गयी ओ देख . विकास लागे बच्चा , लागे का था ही बच्चा.  ओ की मूछें भी न जमी हुई . हवलदार से पुछैय रहें कोतवाल "जा ही है ?" तलाशी ली तो यहाँ से (कमर के दोनु तरफ इशारा कर के ) निकले कारतूस दाने , उँगलियों से सोने की अंगूठी , चैन गले से . उस टैम के दस हज़ार रुपये नकद . '16 साल का था जा जब  दो मोज़र निकली,' कमर में ठुंसी हुई . कोतवाल बेहोश ....!
    स्कूटी वाला लोहा व्यापारी लक्ष्मी निवास मित्तल तो बन ही चुका था ख्यालों में और बाकी के ये बाएं वाले दो भगत भगेलू सुन रहें थे, सुन रहें हैं, सुन रहें होंगे? राम जाने या फिर वही . . सबके दिमाग में उनकी अपनी अपनी पिच्चरें चल ही रही थी की अर्थशास्त्री चचा टोक दिए , बोले " अरे बहुत दिमाग खपाना पड़ै , जे ही अमीर ना बने कोई .."
स्कूटी वाला तो इस्पात tycoon  लक्ष्मी मित्तल बन ही चुका था तो पूछ ही मार की क्या हुआ आगे , चचा ने बताया :--
                        " फिर पुलिस ओ के मोहल्ला में पूछी रही , मूछें भी नहीं जमी उसकी. अरे बच्चा था . लोगो से पुछा उसके मोहल्ले के . अब पुलिस भी किधर मरे केस भी ना बने वा पर . लोगन बताय रहें की पिताजी ना हैं इसके , भाई से बात करो.."
    फिर बाएं हरी टी शर्ट वाले ने झाड़ू उठाया और काम में जुटने का आह्वान किया . चचा भी उठ खडे हुए और रोड पर झाड़ू लगाने लगे . कुल मिलाकर सार ये है की कोई भी चोरी, चकारी या चकल्लस करने हेतु पहला और आखिरी फार्मूला या फिर mandatory condition कह लो की  तो मूछें जमना जरुरी है, ताकि कोई भी चचा भविष्य  में आपके किस्से  सुनाएं तो शर्म ना महसूसे की आप जवान या मर्द नहीं थे . जैसे ही चचा सहित दोनू भगेलू भगत काम पर उठी वेसे ही स्कूटी वाला आती जाती लड़कियों को बेतरतीब तरीके से घूरने लगा . चचा ने पूरा किस्सा किसी मांझी नेता की तरह सुनाया और दोनु भगेलू  भगतों ने गाहे बगाहे , अनमने सुना भले नहीं सुना पर उन् दो की आँखों में  लाचार और बेबस जनता की ही तरह अपने काम झाड़ू  (झाड़ू, AAP वालो का               नहीं ) लगाने की फिक्र थी . 
 बाकी खुदा खैर करे..! 
--अब अगर अच्छा पढ़ा और मन है की दूसरों को भी पढना है तो इस कदर वायरल करना की ये बात तीन लोगो तक पहुच जाए , चचा तक, विकास तक और स्वर्ग तक . अबे नहीं भी करोगे तो भी हम भूखे मारने वाले हैं नहीं . भूखै मर रहे होते तो लिखते कैसे .-- 


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