Sunday, 23 October 2016

दो आरज़ू में काट गए , दो इंतज़ार में : ज़फर जयंती


शायर होना या हो जाना , ना जाने क्या होता है, शायद शायर हो जाया  जाता है. तो 24 अक्टूबर एक ऐसे शायर का जन्मदिन है जो न की शायर था बल्कि हिंदुस्तान में राज करने वाली सबसे बड़ी सल्तनत का आखिरी बादशाह. हाँ तो बात बहादुर शाह ज़फर की ही हो रही है. ज़फर के बारे में हमेशा ऐसा व्याख्यान पढ़ने को मिला था( कोर्स की किताबें हों या कुछ भी जिसमें  उनके शाशन को बताया  हो) जिस से ज़फर की एक कमज़ोर सी छवि बनती. पांच  साल पहले जब लोग फेसबुक पर हाथ पाँव मार ही रहे थे तो पहली बार किसी फ़ेसबुकिया शायरी के ग्रुप में  ये पढ़ा

"उम्र ऐ दराज़ मांग कर लाये थे चार दिन दो आरज़ू में काट गए , दो इंतज़ार में ...." 

और नाम डाला था फ़राज़ का तो ज़फर नहीं पकडे गए और आज भी दराज़ और फ़राज़ के समान्तर ध्वनि उच्चारण की ही वजह है की ज़फर नही आते दिमाग में. पर जब पुख्ता पता चला की ये ज़फर कही है तो ज़फ़र को और पढ़ा, जो ज़फर की कमज़ोर सी छवि बनी थी वो आहिस्ता आहिस्ता ख़तम होती रही और ज़फर एक बाहत ज़बरदस्त शायर लगने लगे. ज़फर का एक और किस्सा मशहूर तो नहीं पर बताने लायक ज़रूर  है, एक poetic concert में सुना था और ज़फर से थोड़ा और जुड़ाव हुआ. वैसे तो हम लोग किसी भी शायर को पढ़ें तो अपना अक्स खोज लेते हैं और वो करीब आ जाता है. तो किस्सा यूँ है की ज़फर बाकी मुग़ल शासकों की तरह गद्दी के खातिर पैंतरे नहीं चल पाते थे, क्या कीजे शायर था जनाब . तो जब समूचे भारत में 1857 की क्रान्ति का बिगुल बजा तो ज़फर भी पीछे नहीं हटे और 12 मई 1857 को पहली बार सभा की और अपना पूरा समर्थन क्रांतिकारियों को दिया , कुछ ही दिनों में उनके लोगों ने 52 यूरोपीय लुटेरों को मार गिराया. जैसा कहा जाता है कि धर्म के नाम पर ज़फर बहुत ही उदारवादी थे और कोई भी किसी भी तरह के धार्मिक, जातीय भेदभाव को तवज्जो नहीं देते, यही वजह थी कि वो भी क्रांतिकारियों को समर्थन देकर उनकी सहभागिता बढ़ने लगी. फलस्वरूप  7 अक्टूबर १८५८ कि सुबह 4 बजे , अपनी बेगमों और बचे हुए दो बेटों के साथ रंगून ले जाए जाने लगे . अब जोकिस्सा मैंने सुना वो यहाँ पर रोचक है , जब उनको दिल्ली से रंगून ले जाए जा रहा था तो जिस सार्जेंट को उनको पहुचने का दायित्व सौंपा गया था, सार्जेंट ने तंज़ मार कर  बोला , चूंकि वो अँगरेज़ सार्जेंट यहीं पैदा हुआ था बड़ा हुआ था तो शायरी का बहुत शौक रखता था बोला " बादशाह हमने एक शेर कहा , सुनोगे " ज़फर ने हाँ ही कहा होगा तो उसने कहा :--
 " दमदमे* में दम नहीं अब खैर मांगो जान की
ऐ ज़फर ठंडी हुई शमशीर हिंदुस्तान की ....."  
गाज़ियाबाद के पास हिंडन  नदी बहती है वहां पहुँचते पहुँचते ज़फर बोले " बेटा तुमने हमें शेर कहा हमने भी एक शेर कहा , सुनाएं ..?" सार्जेंट की हाँ भरते ही ज़फर बोले
" ग़ाज़ियों में बू रहेगी जब तलाक ईमान की 
तख़्त ऐ लन्दन तक चलेगी तेग हिंदुस्तान की "

अब ज़फर की एक ग़ज़ल हो जाए जो बहुत रूमानी है , कुछ महीनो ही पहले इसकी ये दो फोटो में लगी हुई लाइनें कहीं  पढ़ी थी और सट सी गई.

" बात करनी मुझे मुश्किल कभी ऐसी तो न थी
जैसी अब है  तिरी महफ़िल कभी ऐसी तो न थी 

ले गया छीन के कौन आज तिरा सब्र-ओ-क़रार
बे-करारी तुझे ऐ  दिल कभी ऐसी तो न थी 


उस की आँखों ने खुद जाने किया क्या जादू 
की तबियत मिरी माइल कभी ऐसी तो न थी 

अक्स-ए-रुख़सार ने किस के है तुझे चमकाया
तब तुझ में मा-ऐ-कामिल कभी ऐसी तो न थी 

अब की जो रह-ऐ-मोहब्बत में उठाई तकलीफ 
सख्त होती हमें मंज़िल कभी ऐसी तो न थी 

प् ऐ कुबान कोई ज़िन्दान में न्य है मजनू 
आती आवाज़-ऐ-सालसिल कभी ऐसी तो न थी  

निगाह ऐ यार को अब क्यों है तगाफुल ऐ दिल 
वो तिरे हाल से गाफिल कभी ऐसी तो न थी 

चश्म-ऐ-कातिल मिरी दुश्मन थी हमेशा लेकिन
जैसी अब हो गई कातिल कभी ऐसी तो न थी 

क्या सबाब तू जो बिगड़ता है ज़फर से हर बार 
खूँ तिरी हूर शामिल कभी ऐसी तो न थी ...."

अब वो जिसमें हमेशा ही बहुत लोगों को भ्रम रहा की ये फ़राज़ की है , कि ग़ालिब की , या कि ज़फर की.

" लगता नहीं है जी मेरा उजड़े दयार में
किसकी बनी है आलम-ए-नापायेदार में

बुलबुल को पासबाँ से न सैयाद से गिला
क़िस्मत में क़ैद लिखी थी फ़स्ल-ए-बहार में

कह दो इन हसरतों से कहीं और जा बसें
इतनी जगह कहाँ है दिल-ए-दाग़दार में

इक शाख़-ए-गुल पे बैठ के बुलबुल है शादमाँ
काँटे बिछा दिये हैं दिल-ए-लालाज़ार में

उम्र-ए-दराज़ माँगके लाए थे चार दिन
दो आरज़ू में कट गए, दो इन्तज़ार में

दिन ज़िन्दगी के ख़त्म हुए शाम हो गई
फैला के पाँव सोएँगे कुंज-ए-मज़ार में

कितना है बदनसीब “ज़फ़र″ दफ़्न के लिए
दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में...."

* दमदमा वो जगह होती है जहाँ शस्त्र, गोला बारूद, रखे जाते थे

1 comment:

  1. Kya bat h.I never knew that Zafar was a sayar as well. We have always been taught that Zafar left too Rangoon after 1857 revolt. Hume to bhagoda hi padhaya gya hmesa. Ye pehalu jaan k bhi accha lga.

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