Thursday, 31 August 2017

डाकघर के बिना एक मुल्क

(कविताओं के इतर हमेशा कि तरह हंसमुख आग़ा)
1991 की ग्रीष्म में जब  कश्मीर चरमपंथ के चरम और पंडितों के पलायन, इन दोनों  के भय व ट्रॉमा से जूझ रहा था तो हर साल गर्मियों की तरह ही आग़ा शाहिद अली अपने घर श्रीनगर आये जहाँ वो अपने मित्र इरफ़ान हसन संग ठहरे एवं कुछ दिनों बाद सुफिआ जो की उनकी माँ थी,वे भी आयीं
इरफ़ान ही थे जिन्होंने आग़ा को श्रीनगर के घटनाक्रमों के बारे में विस्तार से बताया। एक दिन बातों ही बातों में इरफ़ान ये वाकया बता बैठे कि ;-
एक दफा इरफ़ान हसन अवितरित पत्रों के सन्दर्भ में जानकारी लेने डाक घर जा पहुँचे  वहां पहुँचकर देखा तो कई ढ़ेर पार्सल, चिट्ठियों के तितर-बितर  पड़े हैं. इरफ़ान ने खुद के लिखे पत्र और दोस्तों निजी पतों
(कविता संग्रह का आवरण)
पर आये या लिखे हुए पत्रों को भी उठाया और घर लेकर आ गए


यही वो किस्सा है जिससे प्रभावित हो आग़ा शाहिद अली ने 1997 में "दी  कंट्री विथाउट अ पोस्ट ऑफिस " लिखी
अंतर्राष्ट्रीय पटल पर कविताओं का यह  संग्रह बहुत सराहा गया जिसमें  पहली कविता इरफ़ान हसन को समर्पित है












--- विनोद 

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