Friday, 11 November 2016

निकल पड़ेंगे हम

जहाँ से फूटती हो वो रोशनी
जो हर स्याह रातों की
मायूसी, खामोशी
और
और आँसू हर ले

निकल पड़ेंगे हम
कुछेक मुसाफिर उस सम्त
किसी भोर,
अँधेरों को धता बताकर
आँखों में
रोशनी की तलाश के लिए
उम्मीद की लौ लिये
किसी ओर

भूल पाएँगे क्या..?
उन सब बीते दिनों को
जिनकी खुशनसीबी ने
रातों को जगाया
बाद में उन्हीं रातों
के सबब ने रुलाया...!

अपने यादों के बक्से
का वो भी तो हिस्सा है
सो बेहतर है उसे याद ही करें
और,
और निकल पड़ेंगे हम
कुछेक मुसाफिर
उन रस्तों पर
जहाँ वो रोशनी
बनती हो, मिलती हो
तृप्त सा कुछ कर दे....."

--- © विनोद
(नवंबर 12, 2016)

याद आता है घर

जब कभी,
भूल जाते हैं गीला तौलिया
बिस्तर, कुर्सी या कहीं भी अंदर
याद आता है घर
याद आते हैं वो दिन
जिनमें बोए थे कुछ हो जाने के सपने
वही सपने जो अब हैं तितर बितर
उन सपनों के मानिंद अब
याद आता है घर
बहुत खलती है
किराए के कमरों में
चीखती हुई खामोशी
सँवारने की कोशिश में जब
नहीं महज एक कमरा हमसे पाता सँवर
बहुत याद आता है घर
वो अनमना सा होकर गेहूँ पिसाना
गाय को चारा डालना, पानी पिलाना
वो मोहल्ले की सुनसान दोपहरों में
छिपकर कहानियाँ पढना, गीत गुनगुनाना
न जाने कहाँ सब गया बिसर..?
इन बेवजह कटते दिनों में भी
बहुत याद आता है घर.....

-- विनोद
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मिलना तुम

कभी मिलना फिर से,मुझसे 
बेफुर्सत, बिन तैयारी 
यूँ ही कहीँ से दौड़ आना तुम
मैं भी हड़बड़ाता लड़खड़ाता चला आऊँगा 

तुम्हें देखने, तुम में खोने
हो सके तो, ले आना
बरसात तुम
और साथ में इक 
भारी बस्ता 
बस्ता बचाने के बहाने सही
सामान रखते, 
मेरी ऊंगलियों से अपनी ऊंगलियां 
टकराना तुम

मैं शर्मा जाऊँ तो 
मुझे देख फिर 
हँसना तुम 

बेफुर्सत, बिन तैयारी 
यूँ ही कहीं से दौड़ आना तुम
चलना वहीं कहीं, किसी पहाड़ 
नदी या वीरानी के ठिकानों में
बैठ जाना वहीं कहीं, किसी पत्थर 
लकड़ी या यादों के सिरहानों में

बिखरी पड़ी किसी पेड़ की छाल
उठा लाऊँगा मैं, और.. 
और उसमें हम दोनों का 
नाम लिख देना तुम.........!

-- विनोद

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में हूँ क्या

"मैं हूँ एक 
कोरे वरक सा
मुझ में लिख देना
तू कुछ, तुझ जैसा

मैं हूँ एक 
बिखरती बूँद सा
मुझ को बना लेना 
अपने प्रेम के उस विशाल
पत्ते का हिस्सा...... "

-- विनोद

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मुझे अच्हे लगते हैं

मुझे अच्छे लगते हैं
भीड़ भरे चौराहे
चौराहों पर इंतजार करते लोग
अच्छी लगती हैं हर वो आँखें 
जो किसी की राह में बेसब्री से
बार बार फोन में समय को तकती हैं
हर वो मुस्कान और गलबहियां
जो किसी के होठों और बाहों पर फूट पड़ती हैं
किसी दूर से आए हुए अपने को देखकर
उन भावों के ठहराव में
डूब जाने को दिल करता है
जो किसी को भी पूरा कर देते हैं
मुझे अच्छी लगती हैं
चलती हुई बसें
खिड़की में बैठे लोग
अच्छे लगते हैं वो चुनिंदा शख्स
जो बेमंजिल चलते रहते हैं
बिना किसी ठौर, किसी ठिकाने
की परवाह किए, बस चलते हैं
जिनके चेहरों पर कहीं पहुँचने
की बेचैनी रहती है औ
वहाँ पहुँचकर फिर कहीं और की
अच्छी लगती हैं रोडवेज की
वो कंडक्टर और टायर से
ठीक आगे की सीटें
जहाँ पर बेसाख्ता हवा आती है
और फिर से, बार बार
जी जाने का मन करता है
सब दुख भूलकर, बीता कल
किसी की पीछे को उड़ती हुई
पान की पीकों में छोड़कर....
मुसाफिर हैं , क्या करें
सब अच्छा लगता है
ठहरना नहीं लगता.....
--- विनोद